भक्ति रस की परिभाषा, भेद, अवयव और उदाहरण

Bhakti Ras Ki Paribhasha in Hindi

भक्ति रस की परिभाषा : Bhakti Ras in Hindi:- आज के इस लेख में हमनें ‘भक्ति रस की परिभाषा’ से सम्बंधित जानकारी प्रदान की है।

यदि आप भक्ति रस की परिभाषा से सम्बंधित जानकारी खोज रहे है? तो इस लेख को शुरुआत से अंत तक अवश्य पढ़े। तो चलिए शुरू करते है:-

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भक्ति रस की परिभाषा : Bhakti Ras in Hindi

जहाँ ईश्वर अथवा अपने ईष्ट देवता के प्रति प्रेम व श्रद्धा का भाव ह्रदय में उत्पन्न होता है, तो वहाँ भक्ति रस होता है। भक्ति रस का स्थायी भाव ‘देव रति’ अथवा ‘अनुराग’ होता है।

भरतमुनि से पण्डितराज जगन्नाथ तक संस्कृत के किसी प्रमुख काव्य-आचार्य ने ‘भक्ति रस’ को रसशास्त्र के अन्तर्गत मान्यता प्रदान नहीं की है।

जिन विश्वनाथ ने वाक्यं रसात्मकं काव्यम् के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और ‘मुनि-वचन’ का उल्लघंन करते हुए वात्सल्य रस को नव रसों के समकक्ष सांगोपांग स्थापित किया, उन्होंने भी ‘भक्ति रस’ को रस के रूप में स्वीकार नहीं किया।

भक्ति रस की सिद्धि का वास्तविक स्रोत काव्यशास्त्र न होकर भक्तिशास्त्र है। जिसमें मुख्यतया ‘गीता’, ‘भागवत’, ‘शाण्डिल्य भक्तिसूत्र’, ‘नारद भक्तिसूत्र’, ‘भक्ति रसायन’ तथा ‘हरिभक्तिरसामृतसिन्धु’ प्रभूति ग्रन्थों की गणना की जा सकती है।

भक्ति रस के अवयव (उपकरण)

भक्ति रस के सभी अवयव (उपकरण) निम्न प्रकार है:-

रस का नामभक्ति रस
स्थायी भावरति (प्रेम), अनुराग, दास्य
आलंबन (विभाव)भगवान, पूज्य व्यक्ति के प्रति श्रद्धा, परमेश्वर, राम, श्री कृष्ण, आदि।
उद्दीपन (विभाव)श्रवण, स्मरण, उपकारों का स्मरण, महानता के कार्य, कृपा, दया, कष्ट, परमात्मा के अद्भुत कार्यकलाप, सत्संग, भक्तों का समागम, आदि।
अनुभावसेवा, अर्चन, कीर्तन, वंदना, गुणगान, गुण, श्रवण, जय-जयकार, स्तुति वचन, प्रिय के लिए कष्ट सहना, कृतज्ञता-प्रकाशन, शरणागति, प्रार्थना, हर्ष, शोक, अश्रु, रोमांच, कंप, भगवान के नाम तथा लीला का कीर्तन, आँखों से आँसुओं का गिरना, गदगद हो जाना, कभी रोना, कभी नाचना, आदि।
संचारी भावहर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धृति, उत्सुकता, विस्मय, उत्साह, हार, लज्जा, निर्वेद, भय, आशंका, विश्वास, संतोष, हर्ष, वितर्क, आदि।

भक्ति रस का स्थायी भाव

भक्ति रस का स्थाई भाव ‘रति (प्रेम), अनुराग और दास्य’ है।

भक्ति रस है अथवा भाव?

भक्ति को रस के रूप में स्वीकार करना चाहिए अथवा भाव के रूप में? यह प्रश्न इस बीसवीं शताब्दी तक के काव्य-मर्मज्ञों के सामने एक कठिन समस्या के रूप में रहा है।

इस पर कुछ विशेषज्ञ भक्ति को बलपूर्वक ‘रस’ के रूप मान्यता प्रदान करते है, तो कुछ विशेषज्ञ परम्परानुमोदित रसों की तुलना में भक्ति को श्रेष्ठ मानते है। जबकि, कुछ विशेषज्ञ शान्त रस और भक्ति रस में अभेद स्थापित करने का प्रयत्न करते है।

शेष कुछ विशेषज्ञ, भक्ति को अन्य रसों से अलग, पूर्ण रूप से आलौकिक, एक ऐसा रस मानते है, जिसके अन्तर्गत शेष सभी प्रधान रसों का समावेश हो जाता है।

उनकी दृष्टि में भक्ति ही वास्तविक रस है। शेष रस उनके अंग अथवा रसाभास मात्र है। इस प्रकार भक्ति रस का एक स्वतंत्र इतिहास है, जो रस तत्व विवेचन की दृष्टि से महत्ता रखता है।

‘नाट्यशास्त्र’ के सर्वप्रधान व्याख्याता ‘अभिनव गुप्त’ ने ‘भरतमुनि’ के रस-सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए शान्त रस को नौवां रस सिद्ध कर दिया, लेकिन नौ रसों के अतिरिक्त अन्य किसी रस की स्वतंत्र स्थिति को स्वीकार नहीं किया।

सभी का नौ रसों में से ही किसी न किसी रस में अन्तर्भाव मान लिया और ‘एवं भक्तावपि वाच्यमिति’ लिखकर वही बात ‘भक्ति’ पर भी लागू कर दी। यही नहीं, उन्होंने भक्ति को रस मानने का स्पष्ट निषेध भी किया है। जैसे:-

‘अतएवेश्वरप्रणिधानविषये भक्तिश्रद्धेस्मृतिमतिधृत्युत्साहाद्यनु
प्रविष्टेभ्योऽन्यथैवागमिति न तयो: पृथक् रसत्वेन गणनम्।’

स्पष्टीकरण:- इसलिए, ईश्वर की उपासना विषयक भक्ति और श्रद्धा, स्मृति, मति, धृति, उत्साह, आदि में ही समाविष्ट होने के कारण अंगरूप ही है, अत: उनका पृथक् रसरूप से परिगणन नहीं होता है।

आचार्य मम्मट का भक्ति रस के विचार


आचार्य मम्मट ने भक्ति का न तो शान्त रस में अन्तर्भाव स्वीकार किया है और न ही स्वतंत्र रसरूप में ही उसे स्थापित कर सके है।

आचार्य मम्मट ‘अभिनवगुप्त’ की उक्त धारणा से भी सन्तुष्ट नहीं हुए। इसलिए, उन्होंने मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए भक्ति की मूल भावना ‘देवादिविषयक रति’ को व्यभिचारी भावों से पुष्ट भाव विशेष के रूप में स्पष्ट मान्यता प्रदान कर दी:-

‘रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाऽञ्जित:। भाव:, प्रोक्त:।’

क्या सिर्फ नौ रस (नवरस) ही है?

इस प्रश्न को सामने रखकर जगन्नाथ ने अपने पूर्व पक्ष का निरूपण करते हुए भक्ति को रस मानने वाले मत के आधार से पूरी अभिज्ञता दिखाई। जिसमें:-

‘भगवान जिसके आलम्बन है, रोमांच, अश्रुपात, आदि जिसके अनुभाव है, भागवत, आदि पुराण श्रवण के समय भगवद्भक्त जिसका प्रकट अनुभव करते है और भगवान के प्रति अनुरागस्वरूपा भक्ति ही जिसका स्थायी भाव है। उस जीवन रस का शान्त रस में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अनुराग और विराग परस्पर एक-दुसरे के विरोधी है।

भक्ति का सम्बन्ध

भक्ति का संबंध ‘देवादिरति विषय’ से है। इसलिए भक्ति भाव के अन्तर्गत है और उसमें रसत्व स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

पहले तो लेखक ने रस के विभाव, अनुभाव, संचारी तथा स्थायी सभी रसांगों का उल्लेख करके भक्ति का सम्पूर्ण स्वरूप तैयार किया। फिर रस के नवत्व की रूढ़ि के आग्रह से उसने शान्त रस में भक्ति रस के अन्तर्भाव पर विचार किया है।

तदनन्तर ‘मुनि वचन’ का उल्लघंन न हो जाए, यह सोचकर भक्ति को रस न मानकर भाव मानने के पक्ष का ही समर्थन कर दिया।

जिस पर यह तर्क दिया कि देवादिविषयक रति के आधार पर भक्ति को रस माना जायेगा तो पुत्रादि विषयक रति के आधार पर स्वतंत्र वात्सल्य रस को भी स्वीकार करना होगा।

यही नहीं, इससे आगे जुगुप्सा और शोक को स्थायी भाव न मानकर शुद्ध भाव ही स्वीकार करने का आग्रह किया जा सकता है।

जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण रसशास्त्र विश्रृंखल हो जाने की संभावना होती है। इसलिए, मुनि वचन से नियन्त्रित रसों की नवत्व गणना ही मान्य होनी चाहिए।

यहाँ पण्डितराज ने निश्चय ही संकीर्ण परम्परावादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है। अनुराग और विराग के विरोध की जो महत्त्वपूर्ण समस्या उन्होंने उठाई, उसका भी समुचित विश्लेषण विवेचन नहीं किया गया।

भक्ति में अनुराग ईश्वर के प्रति और विराग संसार के प्रति रहता है। अत: आलम्बन भेद होने से दोनों का वैसा विरोध सिद्ध नहीं होता, जैसा ‘रसगंगाधर’ के रचयिता ने परिकल्पित कर लिया।

भक्ति रस की गणना

भामह, दण्डी, आदि के द्वारा मान्य ‘प्रेयस अलंकार’ में जिन रत्यादिक भावों का समावेश होता था, उनमें पुत्रविषयक रति की भांति देवादिविषयक रति की भी गणना की जा सकती है। इसका सप्रमाण निर्देश करते हुए भक्ति रस के विकास का कुछ सम्बन्ध उक्त अलंकार से भी बताया गया है।

भक्तिशास्त्र में गीता

उपनिषद के अन्तर्गत ब्रह्म के रसमय तथा आनन्दमय होने का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। गीता में भक्ति और भक्त को विशेष महत्ता प्रदान की गई है, लेकिन ‘भागवतपुराण’ को ही भक्ति को व्यापक एवं श्रेष्ठ रसरूप में प्रतिष्ठापित करने का मौलिक श्रेय प्राप्त है। ‘भागवत’ के प्रारम्भ में ही भगवद्विषयक आलौकिक रस तथा उसके रसिकों का उल्लेख मिलता है:-

‘निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंसुतम्।
पिबत भागवतं रसमालयम् मुहुरहो रसिका भुवि भावुका:।’

भक्ति रस की महत्ता तथा उसका स्वरूप ‘भागवत’ में स्थान-स्थान पर व्यक्त किया है।

विभिन्न ग्रंथों व विद्वानों के अनुसार भक्ति रस

यहाँ पर विभिन्न ग्रंथों व विद्वानों ने भक्ति रस को जो परिभाषा प्रदान की है, वह निम्न प्रकार है:-

‘शाण्डिल्य भक्तिसूत्र’ में भक्ति रस

शाण्डिल्य भक्तिसूत्र में भक्ति को परानुरक्तिरीश्वरे रूप में परिभाषित करते हुए भक्ति को द्वेष की विरोधिनी तथा ‘रस’ से प्रतिपाद्य होने के कारण भी रागस्वरूपा स्वीकार किया गया है:-

‘द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च राग:।’

‘नारद भक्तिसूत्र’ में भक्ति रस

‘नारद भक्तिसूत्र’ में भक्ति को परमप्रेमरूपा बताया गया है। इन सूत्र ग्रन्थों में ज्ञान और भक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध तथा राग और विराग की भावना के भक्तिगत अविरोध पर भी एक हल्का सा प्रकाश डाला गया है।

भक्ति की उपलब्धि अमृतत्व, तृप्ति और सिद्धिकारक होती है तथा उससे शोक, द्वेष, रति, उत्साह, आदि का शमन होता है। इसे बताकर शान्त और भक्ति रस के बीच जो द्वैध खड़ा करने की कोशिश की जाती है, उसका तात्विक निषेध किया गया है।

‘भक्तिरसायन’ ग्रन्थ में भक्ति रस

मधुसूदन सरस्वती के ‘भक्तिरसायन’ ग्रन्थ में भक्ति के आलौकिक महत्त्व और रसत्व का विशद निरूपण करते हुए एक और तो भक्ति को दसवाँ रस माना है।

जबकि, दूसरी और सभी रसों से श्रेष्ठ भी स्वीकार किया गया है। भक्ति के रसांगों का निर्देश भी ‘भक्तिरसायन’ में निहित है।

‘भगवद्भक्तिचन्द्रिका’ ग्रन्थ के रचयिता के अनुसार भक्ति रस

‘भगवद्भक्तिचन्द्रिका’ ग्रन्थ के रचयिता ने भी पराभक्ति को रस कहा है:-

पराभक्ति: प्रोक्ता रस इति।

भक्ति के रूप

गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य रूपगोस्वामी कृत ‘हरिभक्तिरसामृतसिन्धु’ में काव्य शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति रस का विस्तार एक सुनिश्चित व्यवस्था के साथ किया गया है।

‘भागवत’ के बाद भक्ति रस की मान्यता का सर्वाधिक श्रेय रूपगोस्वामी को ही जाता है। उन्होंने भक्ति के कुल 5 रूप माने है, जो कि निम्नलिखित है:-

भक्ति के रूप
शान्ति
प्रीति
प्रेय
वत्सल
मधुर

ये शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य व माधुर्य भाव-भक्ति के कुल 5 मूल है। उत्कृष्टता के आधार पर भक्ति रस पराकोटि और अपराकोटि का माना गया है।

इन भावों का मूल ‘भागवत’ की नवधा भक्ति तथा ‘नारद भक्तिसूत्र’ की एकादश आसक्तियों में मिल जाता है। ग्रन्थ के दक्षिण विभाग में भक्ति के रसांगों का विवेचन विस्तार सहित किया गया है।

चैतन्य महाप्रभु गौड़ीय भक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उनकी उपासना का आधार रसप्लावित तीव्र प्रमानुभूति रही है। इसलिए उन्हीं के सम्प्रदाय में भक्ति रस का विशद विस्तार हुआ, जो कि स्वाभाविक ही था।

रीतिकालीन भक्ति रस

हिन्दी में रीतिकालीन काव्य आचार्यों ने भक्तिमूलक काव्य की तो रचना कर दी, लेकिन काव्य रस के रूप में भक्ति की प्रतिष्ठा का शायद ही कोई भी प्रयास उन्होंने नहीं किया।

देव ने अवश्य भक्ति रस पर विचार करते हुए भक्ति के प्रेम, शुद्ध तथा प्रेमशुद्ध नामक 3 भेद किये है और प्रेमाश्रयी भक्ति के अन्तर्गत शान्त की गणना की है।

आधुनिक काल में भक्ति रस

आधुनिक लेखकों में ‘हरिऔध’ को इस स्थिति से सबसे अधिक क्षोभ हुआ, जो उनके ‘वात्सल्य रस’ शीर्षक में भक्तिविषयक प्रसंगान्तर बनकर तीव्रता से व्यक्त हुआ।

भक्ति रस का महत्त्व अन्य रसों की तुलना में बताते हुए उन्होंने लिखा:- “रसो वै स:।” रस शब्द का अर्थ है:- “य: रसयति आनन्दयति स रस:।” वैष्णवों को माधुर्य उपासना परम प्रिय है।

इसलिए भगवदनुरागरूपा भक्ति को रस मानते है। …..मेरा विचार कि वत्सल में उतना चमत्कार नहीं, जितना भक्ति में…. है।

हरिश्चन्द्र के भक्ति रस मे विचार

हरिश्चन्द्र ने ‘भक्ति या दास्य’ लिखकर उसे दास्य तक परिमित कर दिया है। लेकिन, भक्ति काफी व्यापक और उदात्त है और साथ ही भक्ति में इतना चमत्कार है कि श्रृंगार रस भी समता नहीं कर सकता है।

कन्हैयालाल पोद्दार का भक्ति रस

कन्हैयालाल पोद्दार ने भी इस समस्या पर विचार करते हुए कि ‘भक्ति भाव है अथवा रस?’ अपना मत बलपूर्वक भक्ति के रसत्व के पक्ष में दिया है:-

दुख और आश्चर्य है कि जिन साक्ष्याभास श्रृंगार आदि रसों में चिदानन्द के अंशांश के स्फुरण मात्र से रसानुभूति होती है, उनको रस संज्ञा दी जाती है और जो साक्षात चिदानन्दात्मक भक्ति रस है, उसे रस न मानकर भाव माना गया है।

यहीं नहीं, क्रोध, भय, जुगुप्सा, आदि स्थायी भावों को, जो कि प्रत्यक्ष रूप से सुखविरोधी है। उन्हें रौद्र रस, करुण रस, भयानक रस और वीभत्स रस की संज्ञा दी गई है।

पोद्दार की भक्ति रस के अवयवों की व्याख्या

पोद्दार ने भक्ति रस के सभी रसांगों को आलौकिक स्वीकार किया है और उन्होंने भक्ति रस के सभी रसांगों की व्याख्या निम्नलिखित रूप में निर्धारित की है:-

स्थायी भावभगवद्विषयक अनुराग
आलम्बन विभागभगवान राम, कृष्ण, आदि के अखिल विश्व सौन्दर्य निधि दिव्य विग्रह।
अनुभावभगवान के अनन्य प्रेमजन्य अश्रु, रोमांच, आदि।
व्यभिचारी भावहर्षश, सुख, आवेग, चपलता, उन्माद, चिन्ता, दैन्य, धृति, स्मृति, मति, आदि।

शान्त रस की भांति ही पोद्दार भक्ति रस को वास्तविक ब्रह्मनन्द सहोदर बताया है। रति स्थायी आलम्बन भेद से ही रस अथवा भाव होता है। इसलिए, आलौकिक आलम्बन होने से तो यह आलौकिक भक्ति रस ही होगा।

आधुनिक मराठी रस शास्त्रियों के भक्ति रस के बारे में विचार:

आधुनिक मराठी रस शास्त्रियों ने भक्ति रस की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वाटवे ने वीभत्स रस तथा रौद्र रस को कम कर नवरसों में उनके स्थान पर वात्सल्य रस और भक्ति रस को स्थापित करने का सुझाव दिया है।

डी. के. बेडेकर के अनुसार के भक्ति रस के बारे में विचार

डी. के. बेडेकर ने भक्ति रस से भरत के रस-चतुष्टय की व्याख्या भंग होती हुई देखकर वाटवे के मत का तीव्र विरोध किया है।

उनकी धारणा है कि रस-व्यवस्था का मूल आधार ‘देवासुर-कथा’ है और रौद्र रस और वीभत्स रस को बाहर कर देने से वह बिना रावण के रामायण जैसी एकपक्षी हो जाती है।

मा. दा. आलतेकर एवं आनन्दप्रकाश दीक्षित के भक्ति रस के बारे में विचार

मा. दा. आलतेकर भक्ति रस का श्रृंगार रस में अन्तर्भाव करते है, इसी तरह कृ. कोल्हटकर अद्भुत रस में अन्तर्भाव करते है। आनन्दप्रकाश दीक्षित ने इनके मत का सतर्क विरोध किया है।

द. सा. पंगु निर्जीव आलम्बन होने से, रा. श्री. जोग भक्ति की अव्यापकता तथा उसके मूल में भावना न होने से तथा रा. हिंगणेकर शक्ति के विक्रियाहीन होने से उसकी रसत्व का अधिकारी नहीं मानते है।

शिवराम पन्त के भक्ति रस के बारे में विचार

शिवराम पन्त ने भक्ति रस के विविध रूपों की कल्पना करके ‘देशभक्ति’ को स्वतंत्र रस बताया है। जिसका स्थायी भाव उन्होंने ‘देशभिमान’ निर्धारत किया है।

भक्ति रस के उदाहरण

भक्ति रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-

उदाहरण:- 1

एक भरोसो एक बल,
एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित,
चातक तुलसीदास।। – तुलसीदास

उदाहरण:- 2

उलट नाम जपत जग जाना,
वल्मीक भए ब्रह्म समाना। – वाल्मीकि 

उदाहरण:- 3

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई,
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई। – मीराबाई

उदाहरण:- 4

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई,
जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई। – मीराबाई

निष्कर्ष

वस्तुत: भक्ति रस का आलम्बन लौकिक न होकर आलौकिक ही मानना समीचीन होगा। भक्तिशास्त्र में निराकार-निर्गुण ब्रह्म की अवतारवाद के आधार पर इस प्रकार सगुण-साकार कल्पना की गई कि वह भक्ति-भावना का वास्तविक आलम्बन बन सका।

निश्चय ही भक्ति काव्य में भावना का जो विस्तार भारतीय साहित्य में मिलता है, उसको देखते हुए भक्ति को रस न स्वीकार करना वस्तुस्थिति की उपेक्षा करना है।

यह अवश्य है कि महत्त्व के साथ भक्ति रस की अपनी अनेक सीमाएं भी है, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भारत की सभी प्रमुख प्रान्तीय भाषाओं में भक्ति का साहित्य मिलता है।

हिन्दी साहित्य में सूरदास, तुलसीदास, मीरा, आदि की रचनाएं भी भक्ति रस का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है। निर्गुणधारा के काव्य में जहाँ तक वैष्णव भावना का प्रवेश हुआ है, वहीं तक भक्ति रस की व्याप्ति है अन्यथा नहीं है।

भक्ति रस से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न

  1. भक्ति रस की परिभाषा क्या है?

    जहाँ ईश्वर अथवा अपने ईष्ट देवता के प्रति प्रेम व श्रद्धा का भाव ह्रदय में उत्पन्न होता है, तो वहाँ भक्ति रस होता है। भक्ति रस का स्थायी भाव ‘देव रति’ अथवा ‘अनुराग’ होता है।

  2. भक्ति रस का स्थायी भाव क्या है?

    भक्ति रस का स्थायी भाव ‘देव रति’ अथवा ‘अनुराग’ है।

अंतिम शब्द

अंत में आशा करता हूँ कि यह लेख आपको पसंद आया होगा और आपको हमारे द्वारा इस लेख में प्रदान की गई अमूल्य जानकारी फायदेमंद साबित हुई होगी।

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