रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण

रस की परिभाषा : Ras in Hindi:- आज के इस लेख में हमनें ‘रस की परिभाषा’ से सम्बंधित जानकारी प्रदान की है।
यदि आप रस की परिभाषा से सम्बंधित जानकारी खोज रहे है? तो इस लेख को शुरुआत से अंत तक अवश्य पढ़े। तो चलिए शुरू करते है:-
रस की परिभाषा : Ras in Hindi
रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनंद’ होता है। किसी काव्य को पढ़ने अथवा सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को काव्य की आत्मा भी कहते है।
काव्य पढ़ते अथवा सुनते समय आने वाला ‘आनन्द’ अर्थात ‘रस’ लौकिक न होकर अलौकिक होता है। संस्कृत में कहा गया है कि “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस को अंग्रेजी भाषा में ‘Sentiments’ कहते है।
‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति
‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘रस्’ धातु में अच्’ प्रत्यय के योग से हुई है अर्थात ‘रस्+अच् = रस’ होता है। ‘रस’ शब्द का शाब्दिक अर्थ आनंद प्रदान करने वाली वस्तु से प्राप्त होने वाला ‘सुख’ अथवा ‘स्वाद’ है।
साधारण शब्दों में, किसी भी काव्य-रचना को पढ़ने अथवा सुनने से जिस आनंद की प्राप्ति होती है, उसे ही रस कहते है।
रस की व्युत्पत्ति के संबंध में निम्नलिखित 2 सूत्र भी प्रचलित है:-
सूत्र | अर्थ |
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“रस्यते आस्वाद्यते इति रसः।” | अर्थात जिसका आस्वादन अथवा स्वाद लिया जाता है, उसे ही ‘रस’ कहते है। |
“सरते इति रसः।” | अर्थात् जो प्रवाहित होता है, उसे ही रस कहते है। |
द्वितीय सूत्र में ‘प्रवाहित होना’ अर्थ को प्रकट करने के लिए ‘सर’ शब्द का वर्ण-विपर्यय करके अर्थात परस्पर स्थान परिवर्तन करके ‘रस’ शब्द की रचना हुई मानी जाती है।
श्रव्य-काव्य का पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य का दर्शन तथा श्रवण में, जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उस ही काव्य में रस कहलाता है।
रस से जिस भाव की अनुभूति होती है, वह रस का स्थायी भाव कहलाता है। पाठक अथवा श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।
भरत मुनि द्वारा रस की परिभाषा
सर्वप्रथम रस उत्पत्ति को परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के 8 प्रकारों का वर्णन किया है।
रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते है कि सभी नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव ‘रस’ नहीं बल्कि उसका आधार है, लेकिन भरत मुनि ने स्थायी भावों को ही रस माना है।
भरत मुनि ने लिखा है:- “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगद्रसनिष्पत्ति” अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अत: भरत मुनि के ‘रस तत्त्व’ का आधारभूत विषय नाट्य में ‘रस’ की निष्पत्ति है।
काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य की आत्मा को ही रस माना है।
भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के 8 रस है, जो कि निम्न प्रकार है:-
भारत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के रस |
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श्रृंगार रस |
हास्य रस |
रौद्र रस |
करुण रस |
वीर रस |
अद्भुत रस |
वीभत्स रस |
भयानक रस |
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में ‘शांत रस’ का प्रयोग अनुचित माना है। लेकिन, भरत मुनि ने ‘शांत रस’ को एक रस के रूप में स्वीकार किया है। नाट्यशास्त्र में ‘वात्सल्य रस’ का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
ठीक इस प्रकार नवरस की संकल्पना निकलती है। जिसमें कुल 9 रस है, जो कि निम्न प्रकार है:-
नवरस की संकल्पना के रस |
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श्रृंगार रस |
हास्य रस |
रौद्र रस |
करुण रस |
वीर रस |
अद्भुत रस |
वीभत्स रस |
भयानक रस |
शांत रस |
भरत मुनि ने ‘भक्ति रस’ को सिर्फ एक भाव के रूप में स्वीकार किया है।
अन्य विद्वानों के अनुसार रस की परिभाषा
अन्य सभी विद्वानों के द्वारा दी गई रस की परिभाषा निम्न प्रकार है:-
आचार्य धनंजय के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य धनंजय के अनुसार:- विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से आस्वाद्यमान स्थायी भाव ही ‘रस’ है।
साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रस की परिभाषा
विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥
अर्थ:- जब हृदय का स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है, तो ‘रस’ रूप में निष्पन्न हो जाता है।
डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार रस की परिभाषा
डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार:- भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही ‘रस’ है।
आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार:- स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार:- जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।
रस के अंग
रस के कुल 4 अंग होते है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
1. स्थायी भाव
स्थायी भाव रस का प्रथम व सबसे प्रमुख अंग है। स्थायी भाव का अर्थ:- ‘प्रधान भाव’ होता है। ‘प्रधान भाव’ वह ही हो सकता है, जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। भाव शब्द की उत्पत्ति ‘भ्‘ धातु से हुई है, जिसका अर्थ:- विद्यमान अथवा संपन्न होना है।
अतः जो भाव मन में सदैव अभिज्ञान ज्ञात रूप में विद्यमान रहता है, उसे स्थिर अथवा स्थायी भाव कहते है। जब स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तो वह ‘रस रूप’ में व्यक्त हो जाते है।
स्थायी भाव व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते है। यदि वह भाव ‘सुप्त अवस्था’ में रहते है, फिर भी उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ‘रस’ के रूप में परिणत हो जाते है।
लेकिन काव्य अथवा नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िर तक होता है। ‘रस’ में स्थायी भावों की कुल संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार होते है।
एक रस के मूल में एक ही स्थायी भाव रहता है। इसीलिए, रस की कुल संख्या भी 9 है, जिन्हें नवरस कहा जाता है।
बाद के आचार्यों ने 2 और भावों को मान्यता प्रदान की, जो कि ‘वात्सल्य’ और ‘देवविषयक रति’ है। इस प्रकार स्थायी भावों की कुल संख्या 11 हो जाती है और तदनुरूप रसों की कुल संख्या 11 हो जाती है।
स्थायी भाव की सूची परिभाषा सहित
स्थायी भाव | रस | परिभाषा |
---|---|---|
रति | श्रृंगार रस | स्त्री-पुरुष की एक-दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते है। |
हास | हास्य रस | रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है। |
क्रोध | रौद्र रस | असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान, आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते है। |
शोक | करुण रस | प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव, आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होने वाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते है। |
उत्साह | वीर रस | मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है। |
आश्चर्य/विस्मय | अद्भुत रस | अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने व स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है। |
जुगुप्सा/घृणा | वीभत्स रस | किसी अरुचिकर अथवा मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने व उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है। |
भय | भयानक रस | हिंसक जंतुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है। |
शम/निर्वेद/वैराग्य/वीतराग | शांत रस | सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति को ‘निर्वेद’ कहते है। |
वत्सलता | वात्सल्य रस | माता-पिता का सन्तान के प्रति व भाई-बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है। |
देवविषयक रति/भगवद विषयक रति/अनुराग | भक्ति रस | ईश्वर में परम अनुरक्ति को ही ‘देव-विषयक रति’ कहते है। |
ऊपर दी गई सूची में से अन्तिम 2 स्थायी भावों (वत्सलता व देवविषयक रति) को श्रृंगार रस में शामिल किया जाता है।
रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व
स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस-दशा को प्राप्त होते है, इसलिए रस-निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते है।
2. विभाव
वह कारण (व्यक्ति, पदार्थ, आदि) जो किसी व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते है, उन्हें ‘विभाव’ कहते है।
इनके आश्रय से रस प्रकट होता है। यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते है। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वाले विभाव रस कहलाते है। इन्हें कारण रूप भी कहा जाता है।
विभाव के भेद
‘विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जगाते है और उन्हें उद्दीप्त भी करते है। इस आधार पर विभाव के कुल 2 भेद है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
विभाव के भेद |
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आलंबन विभाव |
उद्दीपन विभाव |
(i). आलंबन विभाव
जिस व्यक्ति व वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति व वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते है। जैसे:- नायक और नायिका का प्रेम।
आलंबन विभाव के कुल 2 पक्ष होते है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
आलंबन विभाव के पक्ष |
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आश्रयालंबन |
विषयालंबन |
(१). आश्रयालंबन
जिसके मन में भाव जाग्रत होता है, वह आश्रयालंबन कहलाता है। उदाहरण के तौर पर:- कृष्ण के मन में राधा के प्रति रति भाव जाग्रत होता है, तो कृष्ण आश्रय होंगे।
(२). विषयालंबन
जिसके प्रति अथवा जिसके कारण मन में भाव जाग्रत होता है, वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण के तौर पर:- कृष्ण के मन में राधा के प्रति रति भाव जाग्रत होता है, तो राधा विषय होंगी।
(ii) उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं अथवा परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त व तीव्र होने लगता है, वह ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। जैसे:- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक अथवा नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ, आदि।
आलम्बन विभाव के कारण ही रस में स्थायी भाव प्रकट होता है। इसी वजह से रस की स्थिति उत्पन्न होती है। प्रकट होने वाले स्थायी भावों को और अधिक प्रबुद्ध, उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते है।
रस-निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व
हमारे मन के स्थायी भावों को जाग्रत तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते है। इस प्रकार रस-निष्पत्ति में विभाव का काफी अधिक महत्त्व है।
3. अनुभाव
आश्रय की चेष्टाओं तथा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करने वाले वह भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते है, अनुभाव कहलाते है। भावों को सूचना प्रदान करने के कारण यह भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चातवर्ती माने जाते है।
अनुभाव के भेद
अनुभावों के मुख्य रूप से कुल 4 भेद होते है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
अनुभव के भेद |
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कायिक अनुभाव |
मानसिक अनुभाव |
आहार्य अनुभाव |
सात्त्विक अनुभाव |
(i). कायिक अनुभाव
अक्सर शरीर की कृत्रिम चेष्टा ही ‘कायिक अनुभाव’ कहलाती है।
(ii). मानसिक अनुभाव
मन में हर्ष-विषाद आदि का उद्वेलन ही ‘मानसिक अनुभाव’ कहलाता है।
(iii). आहार्य अनुभाव
मन के भावों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की कृत्रिम वेश-रचना करना ही ‘आहार्य अनुभाव’ कहलाता है।
(iv). सात्त्विक अनुभाव
हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ:- ‘प्राण’ होता है। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव’ का रूप धारण कर लेते है।
अनुभावों की कोई संख्या निश्चित नहीं है। जो अन्य 8 अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते है, सात्विक भाव कहलाते है। यह अनायास सहज रूप से प्रकट होते है। इनकी कुल संख्या 8 होती है, जो कि निम्नलिखित है:-
स्तंभ |
स्वेद |
रोमांच |
स्वर-भंग |
कम्प |
विवर्णता |
अश्रु |
प्रलय |
रस-निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व
स्थायी भाव जाग्रत व उद्दीप्त होकर रस-दशा को प्राप्त होते है। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।
4. संचारी भाव
स्थायी भावों के साथ संचरण करने वाले भाव, ‘संचारी भाव’ कहलाते है। इससे स्थायी भाव की पुष्टि होती है।
संचारी भाव स्थायी भावों के सहकारी कारण होते हैं, यहीं उन्हें रसावस्था तक ले जाते है और स्वयं बीच में ही लुप्त हो जाते हैं। इसलिए, यह व्यभिचारी भाव भी कहलाते है।
भरत मुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि यें वह भाव हैं, जो रसों में विभिन्न प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते है।
जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती है और बाद में समुद्र में ही विलीन हो जाती है, ठीक उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न होकर विलीन होते रहते है।
संचारी भाव के भेद
संचारी भाव अनगिनत है, लेकिन फिर भी आचार्यों ने संचारी भावों की कुल संख्या 33 निश्चित की है। जो कि निम्न प्रकार है:-
रस के संचारी भाव की सूची:
निर्वेद | आवेग | दैन्य |
श्रम | मद | जड़ता |
उग्रता | मोह | विबोध |
स्वप्न | अपस्मार | गर्व |
मरण | आलस्य | अमर्ष |
निद्रा | अवहित्था | उत्सुकता |
उन्माद | शंका | स्मृति |
मति | व्याधि | सन्त्रास |
लज्जा | हर्ष | असूया |
विषाद | धृति | चपलता |
ग्लानि | चिन्ता | वितर्क |
रस-निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व
संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते है। वह स्थायी भावों को इस योग्य बनाते है कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि, वह स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते है, फिर भी यह स्थायी भाव को गति व व्यापकता प्रदान करते है।
रस के प्रकार
हिन्दी में मूल रस की कुल संख्या 9 है। इनके अतिरिक्त वात्सल्य रस को दसवाँ रस तथा भक्ति रस को ग्यारहवाँ रस माना गया है।
विवेक साहनी के द्वारा लिखित ग्रंथ “भक्ति रस – पहला रस या ग्यारहवाँ रस” में इस रस को स्थापित किया गया है। इस प्रकार से हिंदी में रसों की कुल संख्या 11 तक पहुंच जाती है। इन सभी रस का नामों सहित विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
रस | स्थायी भाव |
---|---|
श्रृंगार रस | रति/प्रेम |
हास्य रस | हास |
रौद्र रस | क्रोध |
करुण रस | शोक |
वीर रस | उत्साह |
अद्भुत रस | आश्चर्य/विस्मय |
वीभत्स रस | जुगुप्सा/घृणा |
भयानक रस | भय |
शांत रस | शम/निर्वेद/वैराग्य/वीतराग |
वात्सल्य रस | वत्सलता |
भक्ति रस | देवविषयक रति/भगवद विषयक रति/अनुराग |
1. शृंगार रस
शृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण है, जिसे काव्यशास्त्र रति स्थायी भाव कहते है।
जब विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रति स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है, तो उसे शृंगार रस कहते है। इसमें सुखद व दुखद दोनों प्रकार की अनुभूतियां होती है। श्रृंगार रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
राम को रूप निहारत जानकी,
कंगन के नग की परछाई।
याते सवै सुध भूल गई,
कर टेक रही पल टारत नाही।।
श्रृंगार रस के प्रकार
श्रृंगार रस मुख्य रूप से 2 प्रकार के होते है, जो कि निम्न प्रकार है:-
श्रृंगार रस के प्रकार |
---|
संयोग श्रृंगार |
वियोग श्रृंगार |
(i). संयोग शृंगार
जब कविता में नायक-नायिका के मिलान का वर्णन किया जाता है, तो वह संयोग शृंगार कहलाता है। इसमें प्रेमियों के मिलान, वार्तालाप, आलिंगन एवं दर्शन का वर्णन किया जाता है।
(ii). वियोग शृंगार
जब प्रेमी-प्रेमिका के बिछड़ने के वियोग की अवस्था में उनके प्रेम का वर्णन होता है, तो वह वियोग शृंगार कहलाता है। यह दुःख का कारण बन जाता है।
2. हास्य रस
किसी भी भिन्न वस्तु, व्यक्ति, वेशभूषा, असंगत क्रियाओं, व्यापारों, व्यवहारों, विचारों व आकृति को देखकर जिस विनोद भाव का संचार होता है, उसे हास्य रस कहते है।
जब नायक व नायिका के बीच में कुछ अनौचित्य आभास होता है, तो यह भाव जाग्रत हो जाते है। हास्य रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
कारीगर कोऊ करामात कै बनाइ लायो;
लीन्हों दाम थोरो जानि नई सुघरई है।
रायजू ने रामजू रजाई दीन्हीं राजी ढके,
सहर में ठौर – ठौर सोहरत भई है।।
बेनी कवि पाइकै, अघाई रहे घरी वैके,
कहत न बने कछू ऐसी मति ठई है।
सांस लेत उडिगो उपल्ला औ भितल्ला सबै,
दिन वैके बाती हेत रुई रहि गई है।
इसमें हास स्थाई भाव है। ‘रजाई’ आलम्बन है और साँस लेने से उसका उपल्ला और भितल्ला उड़ जाना उद्दीपन है।
3. करुण रस
जहाँ अनिष्ट की प्राप्ति, इष्ट वस्तु एवं वैभव का नाश, प्रेम पात्र का चिर वियोग, प्रियजन की पीड़ा अथवा मृत्यु होना पाया जाता है, वहाँ करुण रस होता है।
करुणा रस जीवन में सहानुभूति की भावना का विस्तार करता है। करुण रस का स्थायी भाव ‘शोक’ है। करुणा में हमदर्दी, आत्मीयता, और प्रेम उत्पन्न होता है। करुण रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
मात को मोह, ना द्रोह’ विमात को सोच न तात’ के गात दहे’को,
प्रान को छोभ न बंधु बिछोभ न राज को लोभ न मोद रहे’ को।
एते पै नेक न मानत ‘श्रीपति’ एते मैं सीय वियोग सहे को।।
तारन – भूमि” मैं राम कह्यो, मोहि सोच विभीषन भूप कहे को।।
जब लक्ष्मण के शक्ति बाण लगा तो राम का विलाप हुआ। राम के विलाप करने में ‘शोक’ स्थाई भाव है। लक्ष्मण आलम्बन है। राम लक्ष्मण के लिए विलाप करते है। इसमें राम का विलाप अनुभाव है।
4. वीर रस
युद्ध अथवा किसी भी कठिन कार्य को करने के लिए ह्रदय में निहित उत्साह स्थायी भाव के जागृत होने के प्रभाव स्वरूप जो भाव उत्पन्न होते है, उसे वीर रस कहते है।
उत्साह के चार क्षेत्र पाए गए है, जो कि युद्ध, धर्म, दया और दान है। वीर रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।।
हे सारथे! हैं द्रोण क्या? आवें स्वयं देवेन्द्र भी।
वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी।।
दल पराजय का उत्साह स्थाई भाव है। अभिमन्यु आश्र है और कोरब आलम्बन है। अभेद्य चक्रव्यूह उद्दीपन है।
5. अद्भुत रस
अद्भुत रस का स्थाई भाव विस्मय है। किसी भी आसाधारण वस्तु, व्यक्ति एवं घटना को देखकर जो आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है, वह अद्भुत रस कहलाता है। अद्भुत रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
गोपी ग्वाल माली’ जरे आपुस में कहैं आली।
कोऊ जसुदा के अवतर्यो इन्द्रजाली है।
कहै पद्माकर करै को यौं उताली जापै,
रहन न पाबै कहूँ एकौ फन’ खाली है।
देखै देवताली भई विधि’ कै खुसाली कूदि,
किलकति काली” हेरि हंसत कपाली है।
जनम को चाली’ परी अद्भुत है ख्याली’ आजु,
काली’ की फनाली” पै नाचत बनमाली है।।
कृष्ण कालिया नाग पर प्रकट हुआ। उसकी इस अद्भुत लीला को देखकर ब्रजवासी उसके बारे में वार्तालाप कर रहे है। इसमें आश्चर्य स्थाई भाव है। कृष्ण का कालिया नाग पर नृत्य करना और बाँसुरी बजाना उद्दीपन है।
6. भयानक रस
डरावने दृश्यों को देखकर मन में भय उत्पन्न होता है। जब भय नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव व संचारी भाव से होता है, तो भयानक रस उत्पन्न होता है। भयानक रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
पंचभूत का वैभव मिश्रण झंझाओं का सकल निपातु,
उल्का लेकर सकल शक्तियाँ, खोज रही थीं खोया प्रात।
धंसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वालामुखियों के नि:श्वास;
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था ह्रास।
7. रौद्र रस
रौद्र रस का स्थाई भाव ‘क्रोध’ है। किसी भी विरोधी द्वारा किसी धर्म, व्यक्ति व देश का अपमान करने से उसकी प्रतिक्रिया से जो क्रोध उत्पन्न होता है, वही रौद्र रस कहलाता है। रौद्र रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
माखे लखन कुटिल भयीं भौंहें।
रद-पट फरकत नयन रिसौहैं।।
कहि न सकत रघुबीर डर, लगे वचन जनु बान।
नाइ राम-पद-कमल-जुग, बोले गिरा प्रमान।।
8. वीभत्स रस
वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा या घृणा है। गंदी और घृणित वस्तुओं के वर्णन से जब घृणा भाव पुष्ट होता है, तो वीभत्स रस उत्पन्न होता है। वीभत्स रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।
गीध जाँघ को खोदि खोदि के मांस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।।
यहाँ राजा हरिश्चंद श्मशान घाट के दृश्य को देख रहे है। उनके मन में उत्पन्न जुगुप्सा या घृणा स्थाई भाव, दर्शक आश्रय, मुद्दे, मास व श्मशान का दृश्य ‘आलंबन’, राजा हरिश्चंद्र का इसके बारे में सोचना ‘अनुभाव’ व मोह, ग्लानि, आवेग, व्याधि, आदि ‘संचारी भाव’ है। जिससे इसके वीभत्स रस होने का पता चलता है।
9. शांत रस
शम व निर्वेद स्थाई भाव इसका आधार है। ईश्वर प्राप्ति से प्राप्त होने वाले परम आनंद की स्थिति में सभी मनोविकार शांत हो जाते है। और एक अनुपम शांति का अनुभव होने लगता है। शांत रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
सुत वनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबही ते।
अन्तहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै अबही ते।
अब नाथहिं अनुराग जाग जड़, त्यागु दुरदसा जीते।
बुझै न काम अगिनि ‘तुलसी’ कहुँ विषय भोग बहु घी ते।।
10. वात्सल्य रस
वात्सल्य का संबंध छोटे बच्चों के प्रति उनके माता-पिता तथा सगे-संबंधियों के प्रेम एवं ममता के भाव से है। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वात्सल्यता एवं प्रेम है।
सूरदास ने वात्सल्य रस को पूर्ण प्रतिष्ठा प्रदान की है। तुलसीदास की विभिन्न कृतियों के बालकाण्ड में वात्सल्य रस की सुन्दर व्यंजना द्रष्टव्य है। वात्सल्य रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत।
कबहुँ निरखि हरि आप छाँह को कर सो पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ पुनि पुनि तिहि अवगाहत।।
यहाँ पर स्थाई भाव वात्सल्य, प्रेम आलंबन कृष्ण की बल सुलभ चेष्टाएँ, उद्दीपन किलकना, हर्ष, गर्व, उत्सुकता, आदि है। अतः यहाँ पर वात्सल्य रस है।
11. भक्ति रस
भक्ति रस शांत रस से अलग होता है। इसमें भी प्रेम का परिपाक होता है। लेकिन, यहाँ रति भाव अपने इष्ट के प्रति होता है।
जब विषयादि के संयोग से आराध्य विषयक प्रेम का संचार होता है, तो वहाँ पर भक्ति रस होता है। भक्ति रस के कुल 5 भेद है:- शांत, प्रीति, प्रेम, वत्सल व मधु। भक्ति रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
साधुन संग बैठि – बैठि, लोक लाज खोई।
अब तो बात फैल गई, जानत सब कोई।।
असुअन जल सींचि – सींचि प्रेम बेलि बोई।।
मारां को लगन लागी होनी होइ सो होई।
इसमें कृष्ण आलंबन, साथे संग उद्दीपन, ‘प्रेम बेलि बोई’ अनुभाव, हर्ष, अश्रु, आदि संचारी भाव है। इस प्रकार स्थायी भाव ‘इष्टदेव विषयक रति’ से पुष्ट होकर भक्ति रस में परिणिति हो जाता है।
रस के सम्बंधित अक्सर पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण प्रश्न
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रस किसे कहते है?
रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनंद’ होता है। किसी काव्य को पढ़ने अथवा सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को काव्य की आत्मा भी कहते है।
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रस की परिभाषा क्या है?
काव्य पढ़ते अथवा सुनते समय आने वाला ‘आनन्द’ अर्थात ‘रस’ लौकिक न होकर अलौकिक होता है, वहीं काव्य में रस कहलाता है।
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हिंदी में कुल कितने मूल रस है?
हिन्दी में मूल रस की संख्या कुल 9 है, जो कि निम्नलिखित है:-
शृंगार रस
हास्य रस
रौद्र रस
करुण रस
वीर रस
अद्भुत रस
वीभत्स रस
भयानक रस
शांत रस -
रस के कुल कितने भेद है?
रस के कुल भेद 11 है, जो कि निम्नलिखित है:-
शृंगार रस
हास्य रस
रौद्र रस
करुण रस
वीर रस
अद्भुत रस
वीभत्स रस
भयानक रस
शांत रस
वात्सल्य रस
भक्ति रस
हिन्दी में कुल 9 मूल रस होते है। भरत मुनि के बाद के आचार्यों ने 2 रस ‘भक्ति रस’ और ‘वात्सल्य रस’ इस सूची में जोड़ दिए। इस प्रकार रसों की कुल संख्या 9 से 11 हो गई। -
हिंदी में कुल कितने रस है?
हिन्दी में रस की संख्या कुल 11 है, जो कि निम्नलिखित है:-
शृंगार रस
हास्य रस
रौद्र रस
करुण रस
वीर रस
अद्भुत रस
वीभत्स रस
भयानक रस
शांत रस
वात्सल्य रस
भक्ति रस -
रस के उदाहरण लिखिए:-
रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय। – श्रंगार रसबुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय। – हास्य रस -
हिंदी के 9 रसों को नवरस कहा जाता है, जो कि निम्न प्रकार है:-
शृंगार रस
हास्य रस
रौद्र रस
करुण रस
वीर रस
अद्भुत रस
वीभत्स रस
भयानक रस
शांत रस -
नवरस में कुल 9 रस होते है, जो कि निम्न प्रकार है:-
शृंगार रस
हास्य रस
रौद्र रस
करुण रस
वीर रस
अद्भुत रस
वीभत्स रस
भयानक रस
शांत रस -
काव्य में रस की क्या परिभाषा है?
श्रव्य काव्य के पठन तथा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है।
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काव्य में रस की क्या अवधारणा है?
काव्यशास्त्री शुभंकर ने अपने संगीत ‘दामोदर‘ में लिखा है कि एक समय देवराज इन्द्र ने ब्रह्मा से एक ऐसे वेद की रचना करने की प्रार्थना की, जिसके द्वारा सामान्य लोगों का भी मनोरंजन हो सके।
देवराज इन्द्र की प्रार्थना सुनकर ब्रह्मा ने समाकर्षण कर नाट्य वेद की सृष्टि की। सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने ब्रह्मा को इस नाट्य वेद की शिक्षा प्रदान की थी और उसके बाद ब्रह्मा ने भरत मुनि को प्रदान की थी।
उसके बाद भरत मुनि ने मनुष्य लोक में इसका इसका प्रचार-प्रसार नाट्यशास्त्र के रूप में किया। जिसके छठें और सातवें अध्याय में क्रमशः रस और रस के भावों का भरत मुनि ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। वहीं से रस की अवधारणा उत्पन्न हुई। नाट्यशास्त्र को पंचमवेद की संज्ञा दी गई है। -
काव्य में रस का क्या महत्व है?
काव्य में रस एक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक अंग है। एक प्रसिद्ध सूक्त है:- “रसौ वै स:” अर्थात वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है।
भरत मुनि ने कहा है कि, “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्थात रस युक्त वाक्य ही काव्य कहलाते है। काव्य शास्त्र के जानकार विद्वानों ने भी काव्य की आत्मा को ही रस माना है।
काव्य के कुल 4 सौन्दर्य-तत्व चार होते है, जो कि भाव-सौन्दर्य, विचार-सौन्दर्य, नाद-सौन्दर्य और अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य है।
इनमें से भाव सौन्दर्य के अंतर्गत रसों का वर्णन किया गया है। भाव-सौन्दर्य में प्रेम, करुणा, क्रोध, हर्ष, उत्साह, आदि का विभिन्न परिस्थितियों में चित्रण मर्मस्पर्शी होता है। काव्य में भाव-सौन्दर्य को ही साहित्य-शास्त्रियों ने रस कहा है। -
रस के कुल कितने प्रकार के अंग होते है?
अ. 3
ब. 5
स. 9
द. 4
उत्तर:- 4 -
रस के कुल कितने प्रकार के स्थायी भाव होते है?
अ. 4
ब. 9
स. 11
द. 8
उत्तर:- 11 -
विभाव को कुल कितने भावों में बाँटा गया है?
अ. 9
ब. 2
स. 10
द. 8
उत्तर:- 2 -
रस कितने प्रकार के होते है?
अ. 9
ब. 8
स. 11
द. 6
उत्तर:- 11 -
अनुभाव की कुल कितनी संख्या होती है?
अ. 33
ब. 11
स. 9
द. 8
उत्तर:- 8 -
संचारी भाव की कुल कितनी संख्या होती है?
अ. 11
ब. 33
स. 30
द. 32
उत्तर:- 33 -
किसी अन्य भाव द्वारा नष्ट न किये जाने वाले भाव को कौनसा भाव कहते है?
अ. अनुभाव
ब. स्थायी भाव
स. संचारी भाव
द. विभाव
उत्तर:- स्थायी भाव -
भरत मुनि के रस सूत्र में निम्नलिखित में से किस भाव का उल्लेख नहीं है?
अ. अनुभाव
ब. विभाव
स. संचारी भाव
द. शांत भाव
उत्तर:- शांत भाव -
हास्य रस का स्थायी भाव क्या है?
अ. करुण
ब. रति
स.शोक
द. हास
उत्तर:- हास -
वीर रस का स्थायी भाव क्या है?
अ. उत्साह
ब. जुगुप्सा
स. क्रोध
द. अनुराग
उत्तर:- उत्साह -
अनुराग कौनसे रस का स्थायी भाव है?
अ. रौद्र भाव
ब. वात्सल्य भाव
स. करूण भाव
द. भक्ति भाव
उत्तर:- भक्ति भाव -
भरत मुनि के अनुसार रस की कुल कितनी संख्या है?
अ. 8
ब. 9
स. 10
द. 11
उत्तर:- 9 -
हिंदी आचार्यों के द्वारा कुल कितने रसों को मान्यता प्रदान की गई?
अ. 1
ब. 2
स. 3
द. 4
उत्तर:- 2 -
हिंदी आचार्यों के द्वारा कौन-कौनसे 2 रसों को मान्यता प्रदान की गई?
अ. शांत रस और रौद्र रस
ब. श्रंगार रस और हास्य रस
स. वात्सल्य रस और भक्ति रस
द. वात्सल्य रस और वीभत्स रस
उत्तर:- वात्सल्य रस और भक्ति रस -
करूण रस का स्थायी भाव क्या है?
अ. रति
ब. शोक
स. हास
द. अनुराग
उत्तर:- शोक -
भक्ति रस का स्थायी भाव क्या है?
अ. भय
ब. रति
स. अनुराग
द. आश्चर्य
उत्तर:- अनुराग -
शोक रस का स्थायी भाव है?
अ. भयानक रस
ब. अद्भुद रस
स. शांत रस
द. करूण रस
उत्तर:- करुण रस -
हिंदी साहित्य का दसवाँ रस कौनसा है?
अ. भयानक रस
ब. करुण रस
स. वात्सल्य रस
द. भक्ति रस
उत्तर:- वातसल्य रस -
शांत रस का स्थायी भाव क्या है?
अ. आश्चर्य
ब. शोक
स. रति
द. निर्वेद
उत्तर:- निर्वेद -
अनुभाव के कुल कितने भेद है?
अ. 1
ब. 2
स. 3
द. 4
उत्तर:- 4
अंतिम शब्द
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