श्रृंगार रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण

श्रृंगार रस की परिभाषा : Shringar Ras in Hindi:- आज के इस लेख में हमनें ‘श्रृंगार रस की परिभाषा’ से सम्बंधित जानकारी प्रदान की है।
यदि आप श्रृंगार रस की परिभाषा से सम्बंधित जानकारी खोज रहे है? तो इस लेख को शुरुआत से अंत तक अवश्य पढ़े। तो चलिए शुरू करते है:-
श्रृंगार रस की परिभाषा : Shringar Ras in Hindi
जब पति-पत्नी/प्रेमी-प्रेमिका/नायक-नायिका के मन में स्थाई भाव रति जागृत होकर आस्वादन के योग्य हो जाता है, तो वह शृंगार रस कहलाता है। शृंगार रस में प्रेम का वर्णन होता है।
साधारण शब्दों में, जब विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी के संयोग से ‘रति’ नामक स्थायी भाव ‘रस’ रूप में परिणत होता है, तो उसे शृंगार रस कहते है। शृंगार रस को ‘रसराज’ अर्थात ‘रसों का राजा’ व रसपति भी कहा जाता है।
श्रृंगार रस के उदाहरण
श्रृंगार रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
उदाहरण:- 1
दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।।
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही।
यातें सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं।। – तुलसीदास
व्याख्या:- उपर्युक्त पद मे स्थाई भाव ‘रति’, राम-आलंबन, सीता-आश्रय, नग मे पड़ने वाला राम का प्रतिबिम्ब उद्दीपन, उस प्रतिबिम्ब को देखना, हाथ टेकना अनुभाव, तथा हर्ष एवं जड़ता संचारी भाव है। अत: उपर्युक्त पद में संयोग श्रृंगार है।
उदाहरण:- 2
रे मन आज परीक्षा तेरी!
सब अपना सौभाग्य मानावें।
दरस परस नि:श्रेयस पावें।
उध्दारक चाहें तो आवें।
यही रहें यह चेरी! – मैथिलीशरण गुप्त
व्याख्या:- उपर्युक्त पद में स्थाई भाव ‘रति’, यशोधरा-आलम्बन, उध्दारक गौतम के प्रति यह भाव कि ‘वे चाहे आवें’ उद्दीपन विभाव, ‘मन को समझाना और उद्बोधन’ अनुभाव, ‘यशोधरा का प्रणय’ मान, तथा मति, वितर्क और अमर्ष संचारी भाव है। अत: इस छंद में विप्रलम्भ श्रृंगार है।
श्रृंगार रस का स्थाई भाव
श्रृंगार रस का स्थाई भाव ‘रति‘ है। |
श्रंगार रस के अवयव (उपकरण)
श्रृंगार रस के अवयव निम्न प्रकार है:-
श्रृंगार रस के अवयव |
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श्रृंगार रस का स्थाई भाव – रति। |
श्रृंगार रस का आलंबन (विभाव) – नायक और नायिका। |
श्रृंगार रस का उद्दीपन (विभाव) – आलंबन का सौदर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसंत-ऋतु, चांदनी, भ्रमर-गुंजन, पक्षियों का कूजन, आदि। |
श्रृंगार रस का अनुभाव – अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु, आदि। |
श्रृंगार रस का संचारी भाव – हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद, आदि। |
श्रृंगार रस के भेद व प्रकार
श्रंगार रस 2 प्रकार के होते है, जो कि निम्न प्रकार है:-
श्रृंगार रस के भेद व प्रकार |
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संयोग श्रंगार |
वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार) |
1. संयोग श्रृंगार रस
जब नायक-नायिका के परस्पर मिलन, स्पर्श, आलिंगन, वार्तालाप, आदि का वर्णन होता है, तो वहाँ पर संयोग श्रृंगार रस होता है।
इसके अंतर्गत नायिका की खूबसूरती और भाव-भंगिमाओं तथा नायक के उसके प्रति अनुराग का वर्णन होता है। संयोग श्रृंगार रस में दांपत्य को सुख की प्राप्ति होती है।
संयोग श्रृंगार रस के उदाहरण
संयोग श्रृंगार रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करे, भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाय। – बिहारी लाल
व्याख्या:- गोपियां अपने परम प्रिय कृष्ण से बातें करने का अवसर खोजती रहती है। इसी बतरस (बातों के आनंद) को पाने के प्रयास में उन्होंने कृष्ण की बंसी को छिपा दिया है। कृष्ण बंसी के खो जाने पर अत्यंत व्याकुल है।
2. वियोग श्रृंगार रस
जहाँ पर नायक-नायिका का परस्पर प्रबल प्रेम हो, लेकिन मिलन नहीं होता है अर्थात नायक-नायिका के वियोग का वर्णन होता है, वहाँ पर वियोग श्रृंगार रस होता है। वियोग श्रृंगार रस का स्थायी भाव ‘रति’ होता है।
वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार) के उदाहरण
वियोग श्रृंगार रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥ – सूरदास
वियोग श्रंगार रस की अन्य परिभाषाएँ व विचार
भोजराज की वियोग श्रृंगार रस की परिभाषा के अनुसार:- ‘जहाँ रति नामक भाव प्रकर्ष को प्राप्त करें, लेकिन अभीष्ट को न पा सके, वहाँ वियोग श्रृंगार रस होता है’।
भानुदत्त की वियोग श्रृंगार रस की परिभाषा के अनुसार:- ‘युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट अप्राप्ति विप्रलम्भ है’।
साहित्यदर्पण में भोजराज की परिभाषा दुहराई गई है:- ‘यत्र तु रति: प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ’।
उपर्युक्त कथनों में अभीष्ट का अभिप्राय नायक-नायिका से है।
उपरोक्त सभी आचार्यों ने अभीष्ट की अप्राप्ति ही विप्रलम्भ की निष्पत्ति के लिए सबसे आवश्यक मानी है। लेकिन, पण्डितराज ने प्रेम की वर्तमानता को प्रधानता दी है।
उनके अनुसार यदि नायक-नायिका में वियोगदशा में प्रेम होता है, तो वहां पर विप्रलम्भ श्रृंगार होता है।
उनका कथन है कि वियोग का अर्थ है यह ज्ञान की ‘मैं बिछुड़ा हूँ’ अर्थात इस तर्कणा से वियोग में भी मानसिक संयोग सम्पन्न होने पर विप्रलम्भ नहीं माना जाएगा। स्वप्न-समागम होने पर वियोगी भी संयोग माना जाता है।
विभिन्न कवियों के विचार
हिन्दी आचार्यों में केशव तथा सोमनाथ ने ‘रसगंगाधर’ की परिभाषा अपनाई है। जबकि, चिन्तामणि और भिखारीदास ‘साहित्यदर्पण’ से प्रभावित है।
केशव के श्रृंगार रस के बारे में विचार
बिछुरत प्रीतम की प्रीतिमा, होत जु रस तिहिं ठौर।
विप्रलम्भ तासों कहै, केसव कवि सिरमौर।
सोमनाथ के श्रृंगार रस के बारे में विचार
प्रीतम के बिछुरनि विषै जो रस उपजात आइ।
विप्रलम्भ सिंगार सो कहत सकल कविराइ।
चिन्तामणि के श्रृंगार रस के बारे में विचार
जहाँ मिलै नहिं नारि अरु पुरुष सु वरन् वियोग।
भिखारी के श्रृंगार रस के बारे में विचार
जहँ दम्पत्ति के मिलन बिन, होत बिथा विस्तार।
उपजात अन्तर भाव बहु, सो वियोग श्रृंगार।
विप्रलम्भ के भेद
धनंजय ने श्रृंगार के कुल तीन भेद बताए है, जो कि आयोग, विप्रयोग व सम्भोग है। इनमें आयोग और विप्रयोग विप्रलम्भ के अन्तर्गत आते है।
आयोग का अर्थ:- “नहीं मिल पाना” है और विप्रयोग का अर्थ:- “मिलकर अलग हो जाना” है। लक्षण के अनुसार आयोग पूर्वानुग्रह के समकक्ष है। कभी-कभी विप्रयोग और विप्रलम्भ पर्याय जैसे भी समझे जाते है।
विप्रलम्भ के कईं प्रकार से भेद किये गए है। |
भोज ने ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में कुल 4 भेद बताए है, जो कि पूर्वानुराग, मान, प्रवास एवं करुण है। |
परवर्ती आचार्यों में विश्वनाथ ने इन्हीं भेदों का कथन किया है। |
मम्मट ने विप्रलम्भ के कुल 5 भेद बताए है, जो कि अभिलाषहेतुक, विरसहेतुक, ईर्ष्याहेतुक, प्रवासहेतुक तथा शापहेतुक है। |
भानुदत्त और पण्डितराज ने मम्मट के भेदों को ही स्वीकार किया है। |
हिन्दी के आचार्यों में केशव, देव, भिखारी, आदि ने ‘साहित्यदर्पण’ का ही अनुसरण किया है। |
नवीन विद्वानों में कन्हैयालाल पोद्दार ने ‘काव्यप्रकाश’ का तथा रामदहिन मिश्र ने ‘साहित्यदर्पण’ का वर्गीकरण स्वीकार किया है। |
‘हरिऔध’ पूर्वानुराग, मान और प्रवास, तीन ही भेद स्वीकार करते है। |
मतिराम ने भी ‘रसराज’ में यह तीन भेद भी माने है। |
पूर्वराग अथवा पूर्वानुराग
मिलन अथवा समागम से पूर्व हृदय में जो अनुराग का आविर्भाव होता है, उसे पूर्वराग अथवा पूर्वानुराग कहा जाता है।
पूर्वराग अथवा पूर्वानुराग के मार्ग अथवा विधियां
पूर्वराग अथवा पूर्वानुराग के कुल चार मार्ग अथवा विधियां है, जो कि निम्न प्रकार है:-
प्रत्यक्ष दर्शन |
चित्र दर्शन |
श्रवण दर्शन |
स्वप्न दर्शन |
पूर्वानुराग में प्रियमूर्ति के भिन्न-भिन्न प्रकार से दर्शन होने का विधान है। इसको नियोग भी कहते है।
कविराज विश्वनाथ के अनुसार पूर्वानुराग के प्रकार
कविराज विश्वनाथ के अनुसार पूर्वानुराग कुल 3 प्रकार के होते है, जो कि निम्न प्रकार है:-
नीलीराग:- जो बाहरी चमक-दमक तो अधिक न दिखाए, लेकिन हृदय से कभी दूर न हो। |
कुसुम्भराग:- जो शोभित अधिक हो, लेकिन जाता रहे। |
मंजिष्ठाराग:- जो शोभित भी हो और साथ ही कभी नष्ट भी न हो। |
श्रृंगार रस में मान (प्रणयमान और ईर्ष्यामान)
प्रियापराधजनित कोप को मान कहते है। मान के कुल 2 भेद होते है, जो कि निम्न प्रकार है:-
प्रणयमान |
ईर्ष्यामान |
श्रृंगार रस में प्रणयमान
नायक और नायिका के हृदय में भरपूर प्रेम होने पर भी जब वह दोनों एक-दूसरे से कुपित हो, तो प्रणयमान होता है।
इसका समाधान यह कहकर किया गया है कि प्रेम की गति कुटिल होती है, यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा मान नायक-नायिका पारस्परिक अनुराण की पुष्टि हेतु करते है।
यदि यह मान अनुनय-विनय समय तक न ठहर सके, तो इसे विप्रलम्भ श्रृंगार न समझकर ‘सम्भोगसंचारी’ भाव मानना चाहिए।
श्रृंगार रस में ईर्ष्यामान
पति की अन्य नारी में आसक्ति देखने, अनुमान करने अथवा किसी से सुन लेने पर स्त्रियों द्वारा किया गया मान ‘ईर्ष्यामान’ कहलाता है।
ईर्ष्यामान के भेद
निवृत्ति के अनुसार ईर्ष्यामान के कुल 3 भेद कहे गए है, जो कि निम्न प्रकार है:-
लघु मान |
मध्यम मान |
गुरु मान |
श्रृंगार रस में प्रवास
लघु मान |
मध्यम मान |
गुरु मान |
नायक-नायिका में से किसी एक व्यक्ति का परदेश में होना प्रवास कहलाता है। यह प्रवास कार्यवश, शापवश व भयवश, तीन कारणों से होता है।
प्रवास-वियोग में नायिका के शरीर और वस्त्र में मलिनता, सिर में एक साधारण वेणी एवं नि:श्वास-उच्छवास, रोदन, भूमिपतन, इत्यादि होते है।
शापज (शापहेतुक) वियोग का प्रसिद्ध उदाहरण कालिदास का मेघदूत है, जिसमें कुबेर के शाप के कारण यक्ष अपनी पत्नी से वियुक्त हो गया है तथा मेघ को दूत बनाकर अपना मर्मद्रावक प्रणय सन्देश प्रिया के पास भेजता है।
करुण विप्रलम्भ श्रृंगार रस
नायक-नायिका में से किसी एक की मृत्यु हो जाने पर दूसरा जो दुखी होता है, उसे करुण-विप्रलम्भ कहते है। लेकिन, विप्रलम्भ तभी माना जायेगा, जब परलोकगत व्यक्ति के इसी जन्म में इसी देह से पुन: मिलने की आशा बनी रहे। |
यदि प्रियमिलन की आशा पूर्ण रूप से खत्म हो जाए, तो वहाँ स्थायी भाव शोक होने से करुण-विप्रलम्भ-श्रृंगार के स्थान पर करुण रस होगा। |
‘रघुवंश’ में इन्दुमती की मृत्यु हो जाने पर महाराज ‘अज’ का प्रसिद्ध विलाप करुण-विप्रलम्भ-श्रृंगार नहीं है बल्कि करुण रस है। |
कादम्बरी में पुरण्डरीक की मृत्यु हो जाने पर महाश्वेता को करुण रस की ही अनुभूति हुई, लेकिन आकाशवाणी सुनने पर प्रियमिलन की आशा अंकुरित होने के बाद से ‘करुण-विप्रलम्भ’ माना जाता है। |
वैसी दशा में भी, जहाँ प्रिय से मिलने की आशा नष्ट हो गई है, लेकिन प्रिय जीवित है तथा मिलन की भौतिक सम्भावना पूर्ण रूप से विलुप्त नहीं हुई है, वहाँ पर करुण-विप्रलम्भ रस माना जाएगा। |
‘सूरसागर’ में कृष्ण के ब्रज से चले जाने के बाद गोपियों की वियोगानुभूति करुण-विप्रलम्भ ही है। |
मम्मट के पंचविध विप्रलम्भ और विश्वनाथ के चतुर्विध विप्रलम्भ में कोई मौलिक भेद नहीं है। |
मम्मट का अभिलाषहेतुक वियोग ‘साहित्यदर्पण’ का पूर्वानुराग ही है, यद्यपि सामान्य काव्यानुरागियों में ‘पूर्वराग’ अथवा ‘पूर्वानुराग’ शब्द अधिक लोकप्रिय हैं। |
‘ईर्ष्याहेतुक’ का सम्बन्ध मान से है। प्रवास एवं शाप, दोनों वर्गीकरणों में समान है। करुण-विप्रलम्भ प्रवासहेतुक वियोग के भीतर सन्निविष्ट किया जा सकता है। |
मम्मट का विरहहेतुक विप्रलम्भ अवश्य एक सुन्दर सूझ है। पास रहने पर भी गुरुजनों की लज्जा के कारण समागम न हो, तो वह विरहहेतुक वियोग माना जायेगा। इसके अत्यन्त मर्मस्पर्शी उदाहरण निम्न प्रकार है:- |
देखै बनै न देखतै अनदेखै अकुलाहिं।
इन दुखिया अँखियानुकौ सुखु सिरज्यौई नाहिं।।
श्रृंगार रस में काम दशाएं
वियोग से सम्बन्धित कुल 10 काम-दशाएं भी मानी गई है, जो कि निम्न प्रकार है:-
अभिलाषा |
चिन्ता |
स्मृति |
गुणकथन |
उद्वेग |
प्रलाप |
उन्माद व्याधि |
जड़ता |
मृति या मरण |
बहुत से ही लोग सिर्फ 9 काम-दशाएं की स्वीकार करते है, मरण की स्वीकार नहीं करते है। जबकि, बहुत से लोग ‘मूर्च्छा’ को भी काम-दशा में सम्मिलित कर कुल 11 काम-दशाएं मानते है।
प्रिय से तन से मिलन की इच्छा अभिलाषा है। |
प्राप्ति के उपायों की खोज चिन्ता है। |
सुखदायी वस्तुएं जब दु:खदायी बन जाती है, तो उद्वेग है। |
चित्त के व्याकुल होने से अटपटी बातें करना प्रलाप है। |
जड़-चेतन का विचार न रहना उन्माद है। |
दीर्घ नि:श्वास, पाण्डुता, दुर्बलता, आदि व्याधि है। |
अंगों तथा मन का चेष्टाशून्य होना जड़ता है। |
अन्य दशाओं के अभिप्राय स्वत: स्पष्ट है। इनमें चिन्ता, स्मरण, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण संचारियों में भी वैसे ही गृहीत है।
रस का विच्छेद होने से मरण का वर्णन प्राय: निषिद्ध ठहराया जाता है। लेकिन, विश्वनाथ कहते है कि मरणतुल्य दशा तथा चित्त से आकांक्षित मरण का वर्णन ग्राह्य है और शीघ्र पुनर्जीवित होने की आशा हो, तो भी मरण का उल्लेख मान्य है।
देव की सलाह काफी अधिक महत्त्वपूर्ण है:-
‘मरनौ या विधि बरनिये जाते रस न नसाइ’।
भारतेन्दु की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है:-
एहो प्रान प्यारे बिन दरस तिहारे भये।
मुये हूँ पै आँखें हैं खुली ही रह जाएँगी।।
‘मरण’ के गृहीत हो जाने से सम्पूर्ण व्यभिचारी भाव विप्रलम्भ अथवा वियोग-श्रृंगार में चले आते है।
श्रृंगार रस से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न
-
श्रृंगार रस की क्या परिभाषा है?
जब पति-पत्नी/प्रेमी-प्रेमिका/नायक-नायिका के मन में स्थाई भाव रति जागृत होकर आस्वादन के योग्य हो जाता है, तो वह शृंगार रस कहलाता है। शृंगार रस में प्रेम का वर्णन होता है।
साधारण शब्दों में, जब विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी के संयोग से ‘रति’ नामक स्थायी भाव ‘रस’ रूप में परिणत होता है, तो उसे शृंगार रस कहते है। शृंगार रस को ‘रसराज’ अर्थात ‘रसों का राजा’ व रसपति भी कहा जाता है। -
श्रृंगार रस के कितने उपभेद है?
श्रृंगार रस के कुल 2 उपभेद है, जो कि निम्न प्रकार है:-
संयोग श्रृंगार रस
वियोग श्रृंगार रस -
रसराज किस रस को कहा जाता है?
(अ). हास्य रस
(ब). करूण रस
(स). शृंगार रस
(द). वीर रस
उत्तर:- शृंगार रस -
शृंगार रस का स्थाई भाव क्या है?
(अ). भय रस
(ब). रति
(स). भाव
(द). शोक
उत्तर:- रति -
शृंगार रस के कितने अवयव है?
(अ). 11
(ब). 4
(स). 8
(द). 5
उत्तर:- 5 -
कवि बिहारी मुख्यतः किस रस के कवि है?
(अ). करुण रस
(ब). भक्ति रस
(स). वीर रस
(द). श्रृंगार रस
उत्तर:- श्रृंगार रस -
कौनसे रस को सर्वश्रेष्ठ रस माना जाता है?
(अ). करुण रस
(ब). रौद्र रस
(स). वीर रस
(द). श्रृंगार रस
उत्तर:- श्रृंगार रस -
माधुर्य गुण का प्रयोग कौनसे रस में होता है?
(अ). शांत रस
(ब). भयानक रस
(स). रौद्र रस
(द). श्रृंगार रस
उत्तर:- श्रृंगार रस -
“मेरे तो गिरिधर गोपाला दुसरो न कोई, जके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई” इन पंक्तियों में कौनसा रस है?
(अ). शांत रस
(ब). वीर रस
(स). करुण रस
(द). श्रृंगार रस
उत्तर:- श्रृंगार रस
अंतिम शब्द
अंत में आशा करता हूँ कि यह लेख आपको पसंद आया होगा और आपको हमारे द्वारा इस लेख में प्रदान की गई अमूल्य जानकारी फायदेमंद साबित हुई होगी।
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नमस्कार, मेरा नाम सूरज सिंह रावत है। मैं जयपुर, राजस्थान में रहता हूँ। मैंने बी.ए. में स्न्नातक की डिग्री प्राप्त की है। इसके अलावा मैं एक सर्वर विशेषज्ञ हूँ। मुझे लिखने का बहुत शौक है। इसलिए, मैंने सोचदुनिया पर लिखना शुरू किया। आशा करता हूँ कि आपको भी मेरे लेख जरुर पसंद आएंगे।