वात्सल्य रस की परिभाषा, भेद, अवयव और उदाहरण

वात्सल्य रस की परिभाषा : Vatsalya Ras in Hindi:- आज के इस लेख में हमनें ‘वात्सल्य रस की परिभाषा’ से सम्बंधित जानकारी प्रदान की है।
यदि आप वात्सल्य रस की परिभाषा से सम्बंधित जानकारी खोज रहे है? तो इस लेख को शुरुआत से अंत तक अवश्य पढ़े। तो चलिए शुरू करते है:-
वात्सल्य रस की परिभाषा : Vatsalya Ras in Hindi
माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम, आदि का भाव स्नेह कहलाता है, यह स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव ‘वात्सल्यता’ (अनुराग) होता है।
साधारण शब्दों में, माता-पिता का अपने पुत्र, आदि पर जो नैसर्गिक स्नेह होता है, उसे ‘वात्सल्य’ कहते है।
वात्सल्य नामक भाव जब अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से युक्त होकर अस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तो वहाँ वात्सल्य रस में परिणति हो जाती है।
मैकडुगल, आदि मनस्तत्त्वविदों ने वात्सल्य को प्रधान व मौलिक भावों में परिगणित किया है, व्यावहारिक अनुभव भी यह बताता है कि अपत्य-स्नेह दाम्पत्य रस से थोड़ी ही कम प्रभविष्णुता वाला मनोभाव है।
- संस्कृत के प्राचीन आचार्यों ने देवादिविषयक रति को सिर्फ ‘भाव’ माना है तथा वात्सल्य को इसी प्रकार की ‘रति’ स्वीकार किया है, जो स्थायी भाव के तुल्य, उनकी दृष्टि में चवर्णीय नहीं है।
- सोमेश्वर भक्ति एवं वात्सल्य को ‘रति’ के ही विशेष रूप मानते है:- ‘स्नेहो भक्तिर्वात्सल्यमिति रतेरेव विशेष:।’ लेकिन, अपत्य-स्नेह की उत्कटता, आस्वादनीयता, पुरुषार्थोपयोगिता, आदि गुणों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि वात्सल्य एक स्वतंत्र प्रधान भाव है, जो स्थायी ही समझा जाना चाहिए।
- भोज, आदि कतिपय आचार्यों ने वात्सल्य की सत्ता का प्राधान्य माना है।
- विश्वनाथ ने प्रस्फुट चमत्कार के कारण वत्सल रस का स्वतंत्र अस्तित्व निरूपित कर ‘वत्सलता-स्नेह’ को इसका स्थायी भाव स्पष्ट रूप से माना है:- ‘स्थायी वत्सलता-स्नेह: पुत्राथालम्बनं मतम्।’
हर्ष, गर्व, आवेग, अनिष्ट की आशंका, आदि वात्सल्य के व्यभिचारी भाव है। इसका उदाहरण निम्नलिखित है:-
‘चलत देखि जसुमति सुख पावै।
ठुमुकि ठुमुकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै।।’
उपरोक्त पंक्तियों में सिर्फ वात्सल्य भाव व्यंजित है, स्थायी का परिस्फुटन नहीं हुआ है।
वात्सल्य रस के अवयव (उपकरण)
वात्सल्य रस के अवयव निम्न प्रकार है:-
रस का नाम | वात्सल्य रस |
स्थाई भाव | वत्सल प्रेम, स्नेह |
आलंबन (विभाव) | माता-पिता, संतान, बालक, शिशु, शिष्य, आदि। |
उद्दीपन (विभाव) | माता-पिता-संतान के बीच की गतिविधि, भोली-भाली चेष्टाएँ, चंचलता, नटखटपन, सुंदरता, बालक की चेष्टाएँ, तुतलाना, हठ करना तथा उसके रूप एवं उसकी वस्तुएँ, आदि। |
अनुभाव | चुम्बन, स्पर्श, मुग्ध होना, आश्रय की चेष्टायें, प्रसन्नता का भाव, स्नेह से बालक को गोद मे लेना, आलिंगन करना, सिर पर हाथ फेरना, थपथपाना, आदि। |
संचारी भाव | हर्ष, गर्व, मौतुसक्य, अभिलाषा, आशा, चपलता, आवेग, उत्सुकता, अमर्ष, शोक, हास, चिंता, शंका, विस्मय, स्मरण, आदि। |
वात्सल्य रस का उद्गम
- वात्सल्य शब्द की उत्पत्ति ‘वत्स’ शब्द से हुई है और पुत्रादिविषयक रति का पर्याय है।
- वात्सल्य रस का प्रयोग रस की अपेक्षा भाव के लिए अधिक उपयुक्त है। शायद इसीलिए, प्राचीन आचार्यों ने ‘वात्सल्य रस’ न लिखकर ‘वत्सल रस’ लिखा है और वत्सलता अथवा वात्सल्य को उसका स्थायी भाव स्वीकार किया है।
विभिन्न विद्वानों के द्वारा वात्सल्य रस की परिभाषा
विभिन्न विद्वानों व साहित्यकारों ने वात्सल्य रस की परिभाषा दी है, जो कि निम्न प्रकार है:-
भोजराज के अनुसार वात्सल्य रस
‘श्रृंगारवीर-करुणाद्भुतरौद्रहास्यवीभत्रावत्सलभयानकशान्तनाम्न:।’
विश्वनाथ के अनुसार वात्सल्य रस
‘स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रस विदु:।
स्थायी वत्सलतास्नेह: पुत्राद्यालम्बनं मतम्।।’
स्पष्टीकरण
स्थाई भाव | वात्सल्य स्नेह |
आलंबन (विभाव) | पुत्र |
उद्दीपन (विभाव) | बाल सुलभ चेष्टाओं के साथ-साथ उसकी विद्या, शौर्य, दया, आदि विशेषताएँ। |
अनुभाव | आलिंगन, अंगसंस्पर्श, शिर का चूमना, देखना, रोमांच, आनन्दाश्रु, आदि। |
संचारी भाव | अनिष्ट की आशंका, हर्ष, गर्व, आदि। |
वर्ण | पद्य-गर्भ की छवि जैसा |
देवता | लोकमाता अथवा जगदम्बा |
भोजराज ने ‘श्रृंगार रस’ को रसराज सिद्ध करने के प्रसंग में ‘वत्सल रस’ को सम्मिलित कर अन्य रसों की गणना करते हुए उनकी कुल संख्या 10 बताई है, जिससे स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि उनके समय तक वात्सल्य रस के उद्गम को भी मान्यता प्राप्त हो चुकी थी।
विश्वनाथ के ‘साहित्यदर्पण’ में जिस सांगोपांग रूप में वात्सल्य रस का निरूपण हुआ है, उससे पता चलता है कि काल-क्रम में वात्सल्य रस को अधिक से अधिक मान्यता एवं विकास प्राप्त होता गया।
ऐसा ज्ञात होता है कि वात्सल्य रस का उदगम स्रोत दृश्य काव्य में न होकर श्रव्य काव्य में निहित है।
भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में ऐसा कोई सूत्र उपस्थित नहीं है, जिससे वात्सल्य रस की सिद्धि हो सके। आठ नाट्यशास्त्रों के साथ शान्त रस के मिलाने पर उसमें अधिक से अधिक नौ रसों को ही स्वीकृति मिलती है।
वात्सल्य रस का उद्गम भामह, दण्डी, उद्भट और रुद्रट जैसे आलंकारिकों द्वारा मान्य ‘ग्रेयस’ नामक अलंकार से वात्सल्य रस के उद्गम का कुछ सम्बन्ध सम्भव प्रतीत होता है।
- ‘प्रेय:प्रियतराख्यानम्’ कहकर दण्डी ने ‘प्रेयस्’ अलंकार को प्रीति भाव से सम्बद्ध माना है।
- उद्भट ने इसका जो उदाहरण दिया है, उसमें ‘सुतवाल्लभ्यान्निविशेषा स्पृहावती,’ ‘मृगी की गोद में बैठे मृग-शावक’ का भावपूर्ण चित्र समाविष्ट है, जिससे ‘प्रेयस्’ के वात्सल्य भाव होने का आभास मिलने लगता है।
- रुद्रट के ‘काव्यालंकार’ से वात्सल्य भाव की पुष्टि होती है।
- अभिनवगुप्त ने ‘अभिनवभारती’ में नौ रसों की चर्चा करने के बाद अन्य रसों की सम्भावना का संक्षिप्त उल्लेख तथा अपनी और से उनका खण्डन करते हुए लिखा है:- ‘बालस्य मातापित्रादौ स्नेहो भये विश्रान्त:’ अर्थात माता-पिता के प्रति बालक के स्नेह का अन्तर्भाव भय में हो जाता है। ‘वृद्धस्य पुत्रादावपि द्रष्टव्यम्,’ अर्थात इसी प्रकार वृद्ध का पुत्र आदि के प्रति स्नेह देखा जाना चाहिए।
- अभिनवगुप्त से सहमति रखकर ही कदाचित् मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ में लिखा है:- ‘रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाऽञ्जित: भाव: प्रोक्त:।’
- मम्मट के रस निरूपण से पूर्व ‘तद्विशेषानाह’ की व्याख्या करते हुए ‘बालबोधनी टीकाकार’ ने जो टिप्पणी दी है, उससे पूर्वोक्त ‘प्रेयस्’ विषयक अनुभानाश्रित धारणा प्रमाणित हो जाती है। जिस रस का स्थायी भाव ‘स्नेह’ हो, वह प्रेयांस कहलाता है और इसी का नाम ‘वात्सल्य’ है।
- किसी की सम्मति है कि एक श्रृंगार रस ही रस है। किसी ने प्रेयांस, दान्त तथा उद्धत के साथ वर्णित नवरस को द्वादश रस माना है।
- स्पष्टत: ही टीकाकार ने यहाँ भोजरात की मान्यता का सन्दर्भ देते हुए प्रेयांस को ही वात्सल्य माना है, जिसका संकेत ‘वत्सलप्रकृते:’ के रूप में ‘सरस्वतीकण्ठामरण’ में ही निहित है।
- संस्कृत काव्यशास्त्र में वात्सल्य की स्थिति किस प्रकार एक अलंकार से बढ़ते-बढ़ते रस तक पहुँच गई, इसका कुछ आभास उपरोक्त सभी विवेचनों से सिद्ध हो जाता है।
वात्सल्य रस का स्थायी भाव
वात्सल्य रस का स्थायी भाव ‘वात्सल्य प्रेम’ और ‘स्नेह’ है। वात्सल्य के स्थायी सम्बन्ध में भी कहीं-कहीं भिन्न मत है, जो कि निम्न प्रकार है:-
- कवि कर्णपूर ने ‘ममकार’ को, ‘मन्दारमरन्दचम्पू’ के रचयिता ने ‘कार्पण्य’ को वात्सल्य रस का स्थायी भाव स्वीकार किया है।
- प्रारम्भ में वात्सल्य रस का अन्तर्भाव श्रृंगार रस के अन्तर्गत ही किया जाता रहा है क्योंकि, ‘वत्सलता’ रति का ही एक विशिष्ट रूप है।
- सोमेश्वर ने रति के कुल तीन भेद बताते हुए लिखा है:- ‘स्नेह, भक्ति व वात्सल्य रति के ही विशेष रूप है। तुल्यों की अन्योन्य रति का नाम स्नेह, उत्तम में अनुत्तम की रति का नाम भक्ति और अनुत्तम में उत्तम रति का नाम वात्सल्य है’ (काव्यप्रकाश की काव्यादर्श टीका)। यहाँ स्नेह, भक्ति और वात्सल्य में भेद किया गया है। इससे वात्सल्य भक्ति की भावना का विलोम सिद्ध होता है। उत्तम और अनुत्तम शब्दों से कदाचित श्रेष्ठता का अर्थ न लेकर छोटे-बड़े का अर्थ ही लिया गया ज्ञात होता है।
रीतिकाल में वात्सल्य रस
- प्राय: सभी प्रमुख रीतिकालीन काव्य आचार्यों केशवदास, चिन्तामणि, भिखारीदास, आदि ने वात्सल्य रस की उपेक्षा की है।
- काव्य आचार्यों ने इस विषय में ‘साहित्यदर्पण’ का उदाहरण सामने न रखकर नौ रसों की रूढ़ परम्परा की पालना की है।
- भारतेन्दु ने अवश्य अपने ‘नाटक’ नामक ग्रन्थ में अन्य रसों के साथ वात्सल्य रस को स्थान दिया है, लेकिन उसका कारण अलग है।
- भारतेन्दु ने वात्सल्य रस के साथ दास्य, सख्य और माधुर्य की भी गणना की है। जिससे प्रकट होता है कि उन्होंने वात्सल्य की अवतारणा गौड़ीय सम्प्रदाय के भक्तिशास्त्र के आधार पर की है, जो उनके समय तक वैष्णव भक्ति के क्षेत्र में प्राय: सर्वमान्य हो चुका था।
- भक्तिशास्त्र के अनुसार भी वात्सल्य भाव ही सिद्ध होता है, क्योंकि रस तो भक्ति स्वयं ही है, जो उक्त चारों भावों के द्वारा भावित होता है।
सूरदास का वात्सल्य रस
सूरदास द्वारा वात्सल्य भाव का इतना अधिक विस्तार किया गया कि ‘सूरसागर’ को दृष्टि में रखते हुए वात्सल्य को रस न मानना एक विडम्बना ज्ञात होती है।
- ‘हरिऔध’ ने मूलत: इसी आधार पर वात्सल्य को रस सिद्ध किया है। सिर्फ यही नहीं, हरिऔध ने वात्सल्य रस को वीभत्स रस, हास्य रस, आदि अनेक रसों से तर्क सहित श्रेष्ठ सिद्ध किया है।
- कृष्ण लीला के अन्तर्गत सूरदास का वात्सल्य वर्णन रसत्व प्राप्ति के लिए अपेक्षित सभी अंगों-पांगों को अपने में समाविष्ट किये है।
दूसरे, भक्ति की दृष्टि से वात्सल्य रस सूर का अपना भाव नहीं है।
- इसलिए ‘सूरसागर’ में नन्द यशोदा तथा अन्य वयस्क गोपियों का बालकृष्ण के प्रति प्रेम, आकर्षण, खीझ, व्यंग्य, उपालम्भ, आदि सब कुछ वात्सल्य रस की ही सामग्री है।
- कृष्ण का सौन्दर्य-वर्णन तथा बाल-क्रीड़ाओं का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण भी वात्सल्य के अन्तर्गत आता है।
तुलसीदास का वात्सल्य रस
तुलसीदास का ‘गीतावली,’ ‘कृष्ण गीतावली’ तथा ‘कवितावली’ में ‘रामचरितमानस’ से श्रेष्ठतर वात्सल्य रस की कविता मिलती है।
आधुनिक काल में वात्सल्य रस
- ‘हरिऔध’ के ‘प्रियप्रवास’ और मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ तथा ‘यशोधरा’ में नई भूमिकाओं में वात्सल्य का उद्रेक प्राप्त होता है।
- इसलिए, किसी प्राचीन संस्कृत अथवा हिन्दी के आचार्यों ने वात्सल्य रस के भेदोपभेद करने की चेष्टा नहीं की है।
- यही कारण है कि अधिकतर आचार्यों के द्वारा वात्सल्य को रस ही नहीं माना गया है।
वात्सल्य रस के भेद
आनन्दप्रकाश दीक्षित ने अपने शोधग्रन्थ ‘काव्य में रस’ में वात्सल्य रस के कुल 4 भेद बताए है, जो कि निम्नलिखित है:-
वात्सल्य रस के भेद |
---|
गच्छत्प्रवास |
प्रवासस्थित |
प्रवासागत |
करुण |
ये चारों वियोग – वात्सल्य के उपभेद है, जो स्वयं एक भेद है।
श्रृंगार रस की भांति वात्सल्य रस के भी 2 भेद किये गए है, जो कि निम्न प्रकार है:-
संयोग वात्सल्य रस |
वियोग वात्सल्य रस |
1. संयोग वात्सल्य रस
जहाँ स्नेह संयोग रूप में उमड़ता है, तो वहाँ पर संयोग वात्सल्य रस होता है। इसके उदाहरण निम्न प्रकार है:-
संयोग वात्सल्य रस के उदाहरण
वरदंत की पंगत कुंद कली अधराधर पल्लव खोलन की,
चपला चमके घन बीच जगे, छवि मोतिन मॉल अमोलन की।
घुघरारी लटे लटके मुख ऊपर कुंडल लाल कपोलन की,
न्योछावर प्राण करे तुलसी बलि जाऊ लला इन बोलन की।।
2. वियोग वात्सल्य रस
जहाँ प्रेम व अनुराग वियोग रूप में उमड़ता है, तो वहाँ पर वियोग वात्सल्य रस होता है। इसके उदाहरण निम्न प्रकार है:-
वियोग वात्सल्य रस के उदाहरण
सन्देश देवकी सों कहिए
हौं तो धाम तिहारे सुत कि कृपा करत ही रहियो
तुक तौ टेव जानि तिहि है हौ तऊ, मोहि कहि आवै
प्रात उठत मेरे लाल लडैतहि माखन रोटी भावै।।
करुण वात्सल्य नामक विभेद करुण श्रृंगार के समानान्तर है। |
प्रवास पर आधारित विभेद वात्सल्य रस के वियोगपक्ष में उतने उपयुक्त नहीं लगते है, जितने अधिक विप्रलम्भ श्रृंगार में लगते है, क्योंकि एक विशेष अवस्था तक शिशु में प्रवास सामर्थ्य ही नहीं होती है। |
वात्सल्य रस के उदाहरण
वात्सल्य रस के उदाहरण निम्न प्रकार है:-
उदाहरण:- 1
ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया।
स्पष्टीकरण:- उपरोक्त पंक्ति में श्री राम की बाल्यावस्था की क्रीडाओं को दर्शाया गया है। जिसमें वह कभी घुटनों के बल चलते है, तो कभी खड़े होकर चलने का अभ्यास करते है। उनके पैरों में बंधी पायल की घुंघरू की आवाज पूरे राजमहल में गूंज रही है।
उदाहरण:- 2
बाल दसा सुख निरखि जसोदा,
पुनि पुनि नन्द बुलवाति।
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर,
प्रभु कौ दूध पियावति।।
उदाहरण:- 3
सन्देश देवकी सों कहिए,
हौं तो धाम तिहारे सुत कि कृपा करत ही रहियो।
तुक तौ टेव जानि तिहि है हौ तऊ, मोहि कहि आवै,
प्रात उठत मेरे लाल लडैतहि माखन रोटी भावै।।
वात्सल्य रस से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न
-
वात्सल्य रस की परिभाषा क्या है?
माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम, आदि का भाव स्नेह कहलाता है, यह स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव ‘वात्सल्यता’ (अनुराग) होता है।
-
वात्सल्य रस का स्थायी भाव क्या है?
(अ). शोक
(ब). रति
(स). हास
(द). स्नेह
उत्तर:- स्नेह -
निम्नलिखित में से ‘प्रसन्नता का भाव’ क्या है?
(अ). आलंबन
(ब). उद्दीपन
(स). अनुभाव
(द). संचारी भाव
उत्तर:- अनुभाव -
स्नेह कौनसे रस का स्थाई भाव है?
(अ). शृंगार रस
(ब). वीभत्स रस
(स). वात्सल्य रस
(द). करुण रस
उत्तर:- वात्सल्य रस -
माता-पिता-संतान के बीच की गतिविधि में कौनसा भाव है?
(अ). उद्दीपन
(ब). अनुभाव
(स). अनुभाव
(द). विभाव
उत्तर:- उद्दीपन -
निम्नलिखित में से ‘अभिलाषा’ क्या है?
(अ). संचारी भाव
(ब). उद्दीपन विभाव
(स). आलंबन
(द). अनुभाव
उत्तर:- संचारी भाव -
निम्नलिखित में से ‘भोली-भाली चेष्टाएँ’ क्या है?
(अ). विभाव
(ब). उद्दीपन
(स). अनुभाव
(द). संचारी भाव
उत्तर:- उद्दीपन विभाव
अंतिम शब्द
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