वीर रस की परिभाषा, अवयव, भेद और उदाहरण

वीर रस की परिभाषा : Veer Ras in Hindi:- आज के इस लेख में हमनें ‘वीर रस की परिभाषा’ से सम्बंधित जानकारी प्रदान की है।
यदि आप वीर रस की परिभाषा से सम्बंधित जानकारी खोज रहे है? तो इस लेख को शुरुआत से अंत तक अवश्य पढ़े। तो चलिए शुरू करते है:-
वीर रस की परिभाषा : Veer Ras in Hindi
वीर रस का स्थायी भाव ‘उत्साह’ है। उत्साह नामक स्थायी भाव, अनुभव और संचारी भाव के सहयोग से वीर रस की उत्पत्ति होती है।
साधारण शब्दों में, जब किसी कविता में वर्णित प्रसंग हमारे हृदय में उत्साह अथवा उमंग का भाव उत्पन्न करते है, तो वहाँ पर वीर रस का निर्माण होता है।
ये भाव शत्रुओं के प्रति विद्रोह करने, अधर्म तथा अत्याचार का विनाश करने व असहायों को मुक्ति दिलाने में व्यंजित होते है।
श्रृंगार रस के साथ स्पर्धा करने वाला वीर रस है। श्रृंगार रस, रौद्र रस तथा वीभत्स रस के साथ वीर रस को भी भरतमुनि ने मूल रसों में सम्मिलित किया है।
वीर रस से ही अद्भुत रस की उत्पत्ति मानी जाती है। वीर रस का ‘वर्ण’, ‘स्वर्ण’, अथवा ‘गौर’ तथा देवता ‘इन्द्र’ माने गए है। वीर रस उत्तम प्रकृति वालों से सम्बद्ध है तथा इसका स्थायी भाव ‘उत्साह’ है:- ‘अथ वीरो नाम उत्तमप्रकृतिरुत्साहत्मक:।’
भानुदत्त के अनुसार, पूर्णतया परिस्फुट ‘उत्साह’ अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों का प्रहर्ष या उत्फुल्लता वीर रस है:- ‘परिपूर्ण उत्साह: सर्वेन्द्रियाणां प्रहर्षो वा वीर:।’
आचार्य सोमनाथ के अनुसार वीर रस की परिभाषा
‘जब कवित्त में सुनत ही व्यंग्य होय उत्साह।
तहाँ वीर रस समझियो चौबिधि के कविनाह।।’
वीर रस की पहचान
सामान्यतः रौद्र रस तथा वीर रसों की पहचान करना काफी कठिन होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि दोनों के उपादान बहुधा एक-दूसरे से मिलते-जुलते है।
दोनों के आलम्बन शत्रु तथा उद्दीपन उनकी ‘चेष्टाएँ’ है। दोनों के व्यभिचारियों तथा अनुभावों में भी सादृश्य हैं। कभी-कभी रौद्रता में वीरत्व तथा वीरता में रौद्रवत का आभास भी होता है।
उपरोक्त सभी कारणों से कुछ विद्वान रौद्र रस का अन्तर्भाव वीर रस में और कुछ विद्वान वीर रस का अन्तर्भाव रौद्र रस में करने के अनुमोदक है। लेकिन, रौद्र रस के स्थायी भाव ‘क्रोध’ तथा वीर रस के स्थायी भाव ‘उत्साह’ में अन्तर पूर्णतया स्पष्ट है।
वीर रस के अवयव
वीर रस के सभी अवयव निम्न प्रकार है:-
स्थाई भाव | उत्साह |
आलंबन (विभाव) | अत्याचारी शत्रु |
उद्दीपन (विभाव) | शत्रु का पराक्रम, शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा, आदि। |
अनुभाव | कम्प, धर्मानुकूल आचरण, पूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच, आदि। |
संचारी भाव | आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता, धृति, मति, स्मृति, उत्सुकता, आदि। |
क्रोध एवं उत्साह में भेद
क्रोध एवं उत्साह के मध्य सभी भेद निम्न प्रकार है:-
क्रोध | उत्साह |
---|---|
क्रोध में ‘प्रमोदप्रातिकूल्य’ अर्थात प्रमाता के आनन्द को विच्छिन्न करने की शक्ति होती है। | उत्साह में एक प्रकार का उल्लास अथवा प्रफुल्लता वर्तमान रहती है। |
क्रोध में शत्रु विनाश एवं प्रतिशोध की भावना होती है। | उत्साह में धैर्य एवं उदारता की भावना विद्यमान रहती है। |
क्रोधाविष्ट मनुष्य उछल-कूद अधिक करता है। | उत्साह-प्रेरित व्यक्ति उमंग के साथ कार्य में अनवरत अग्रसर होता है। |
क्रोध प्राय: अंधा होता है। | उत्साह परिस्थितियों को समझते हुए उन पर विजय व लाभ करने की कामना से अनुप्राणित रहता है। |
क्रोध बहुधा वर्तमान से सम्बन्ध रखता है। | उत्साह भविष्य से संबंध रखता है। |
उपर्युक्त प्रदान किये कए क्रोध एवं उत्साह के भेदों को ध्यान में रखने पर रौद्र रस एवं वीर रस के भेद को समझा जा सकता है।
यूं तो रौद्र रस में भी उत्साह संचारी रूप में आ सकता है, क्योंकि उत्साह विस्मय के साथ सभी रसों में संक्रमण कर सकता है:- ‘उत्साहविस्मयौ सर्वरसेषु व्यभिचारिणौ’।
वीर रस में भी क्रोध समाविष्ट हो सकता है, फिर भी रौद्र रस में यह उत्साह अत्यन्त क्षीण होकर दब जाता है और क्रोध ही आस्वाद्य रहता है तथा वीर रस में आने वाला क्रोध सिर्फ ‘अमर्थ’ व्यभिचारी होता है और उत्साह स्थायी ही उत्कटतापूर्वक आस्वादित होता है।
इसलिए, रौद्र रस एवं वीर रस, दोनों की पृथक-पृथक सत्ता है और एक रस में दूसरे रस को अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता है।
उत्साह को आधुनिक मनोविज्ञानियों ने प्रधान भावों में गृहीत नहीं किया है, क्योंकि उत्साह से आलम्बन एवं लक्ष्य स्फुट व स्थिर नहीं रहते है।
यद्यपि, साहित्यशास्त्रियों ने प्रतिमल्ल, दानपात्र व दयापात्र को उत्साह का आलम्बन बताया है, तो भी भाव के अनुभूतिकाल में इन व्यक्तियों की और वैसा ध्यान नहीं रहता है, जैसा अन्य भावों के प्रतीतिकाल में उनके आलम्बनभूत व्यक्तियों की और रहता है।
उत्साह सभी रसों में संचार करता है। रति और भय में भी उत्साह हो सकता है। भोजराज के अनुसार प्रतिकूल व्यक्तियों में तीक्ष्णता का प्रबोध क्रोध है। कथा कार्यरम्भ में स्थिरता और उत्कट आवेश उत्साह है:-
‘प्रतिकूलेषु तैक्ष्ण्यस्य प्रबोध: क्रोध उच्यते।
कार्यारम्भेषु संरम्भ: स्थेयानुत्साह इष्यते।।’
वीर रस का स्थायी भाव
अभिनव गुप्त ने उत्साह को ही शान्त रस का स्थायी भाव स्वीकार किया है। इन कारणों से कुछ लोग उत्साह को वीर रस का स्थायी भाव नहीं मानते है।
रौद्र रस के साथ वीर रस को समादृत करने के प्रयत्न में वह ‘अमर्ष’ को वीर रस का स्थायी भाव समझ लेते है। निन्दा, आक्षेप, अपमान, आदि के कारण उत्पन्न चित्त का अभिनिवेश अर्थात स्वाभिमान का उदबोध अमर्ष है।
लेकिन, वीर रस के कतिपय स्वरूपों में अमर्ष का लवलेश भी दृष्टिगत नहीं होता है। उदाहरण:- कर्मवीर, पाण्डित्यवीर, सत्यवीर, आदि में अमर्ष खोजने पर भी नहीं मिलता है।
इसलिए ‘अमर्ष’ वीर रस का स्थायी भाव नहीं माना जा सकता है। यहाँ कुछ लोगों ने ‘साहस’ को वीर रस का स्थायी भाव उत्पन्न करने का उद्योग किया है।
असल में ‘उत्साह’ में साहस गृहीत हो सकता है, क्योंकि साहस में एक निर्भीक वीरता होती है, जो उत्साह का भी महत्त्वपूर्ण अंग है। लेकिन, उत्साह को साहस से पृथक करने वाला तत्त्व उमंग अथवा उल्लास है, जो साहस में सदैव वर्तमान नहीं रह सकता है।
इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि ‘आनन्दपूर्ण प्रयत्न अथवा उसकी उत्कण्ठा में ही उत्साह का दर्शन हो सकता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं।’
वीर रस की निष्पत्ति के लिए वस्तुत: आचार्यों ने आश्रय में प्रहर्ष अथवा उत्फुल्लता की उपस्थिति का होना आवश्यक समझा है। इसलिए, उत्साह को ही वीर रस का स्थायी भाव मानना युक्तिसंगत सिद्ध होता है।
यह ठीक है कि उत्साह मूल भावों में गृहीत नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में:- ‘आश्रय अथवा पात्र में उसकी व्यंजना द्वारा श्रोता एवं दर्शक को ऐसा विविक्त रसानुभव होता है, जो अन्य रसों के समकक्ष है।’ इसलिए, रस-प्रयोजनकर्ता के विचार से उत्साह उपेक्षणीय नहीं हो सकता है।
वीर रस के भेद
वीर रस के कुल 4 भेद है, जिनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दानवीर |
दयावीर |
धर्मवीर |
1. युद्धवीर रस – जब लड़ने का उत्साह हो
आलंबन (विभाव) | शत्रु |
उद्दीपन (विभाव) | शत्रु का पराक्रम |
अनुभाव | अनुभाव गर्वसूचक उक्तियाँ, रोमांच, आदि। |
संचारी भाव | धृति, स्मृति, गर्व, तर्क, आदि। |
युद्धवीर रस का उदाहरण
युद्धवीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार है:-
‘निकसत म्यान तै मयूखै प्रलै भानु कैसी, फारे तमतोम से गयन्दन के जाल को।
लागति लपटि कण्ठ बैरिन के नागिन सी, रुद्रहिं रिझावै दै दै मुण्डनि के माल को।।
लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बली, कहाँ लौं बखान करौ तेरी करबालको।
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि, कालिका-सी किलक कलेऊ देति कालको।।’
स्पष्टीकरण
आलंबन (विभाव) | शत्रु |
उद्दीपन (विभाव) | शत्रु के कार्य |
उपरोक्त पंक्ति में आलंबन:- शत्रु, उद्दीपन:- शत्रु के कार्य, आदि व्यभिचारी भाव है। इनसे परिपोष प्राप्त कर उत्साह स्थायी आस्वादित होता है, जिससे युद्धवीर रस की निष्पत्ति हुई है।
युद्धवीर वहीं होता है, जहाँ पसीना, मुख अथवा नेत्र की रक्तिमा, आदि अनुभाव न हों, क्योंकि ये क्रोध के अनुभाव है और इनकी उपस्थिति में वीर रस के स्थान पर रौद्र रस होगा।
आलंबन (विभाव) | तीर्थ, याचक, पर्व, दानपात्र, आदि। |
उद्दीपन (विभाव) | अन्य दाताओं के दान, दानपात्र द्वारा की गई प्रशंसा, आदि। |
अनुभाव | याचक का आदर-सत्कार, अपनी दातव्य-शक्ति की प्रशंसा, आदि। |
संचारी भाव | हर्ष, गर्व, मति, आदि। |
दानवीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार है:-
‘जो सम्पत्ति सिव रावनहिं दीन दिये दस माथ।
सो सम्पदा विभीषनहिं सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।’
स्पष्टीकरण
आलंबन (विभाव) | विभीषण |
उद्दीपन (विभाव) | शिव के दान का स्मरण |
अनुभाव | राम का दान देना तथा उसमें अपने गौरव के अनुकूल तुच्छता का अनुभव करना और इसलिए संकोच होना। |
व्यभिचारी | धृति, स्मृति, गर्व, औत्सुक्य, आदि। |
इन सभी से पुष्ट होकर उत्साह स्थायी दानवीर रस में परिणत हो गया है।
3. दयावीर रस
आलंबन (विभाव) | दया के पात्र |
उद्दीपन (विभाव) | उनकी दीन, दयनीय दशा, आदि। |
अनुभाव | दयापात्र से सान्त्वना के वाक्य कहना |
व्यभिचारी | धृति, हर्ष, मति, आदि। |
दयावीर रस का उदाहरण
दानवीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार है:-
‘पापी अजामिल पार कियो जेहि नाम लियो सुत ही को नरायन।
त्यों पद्माकर लात लगे पर विप्रहु के पग चौगुने चायन।।
को अस दीनदयाल भयो। दसरत्थ के लाल से सूधे सुभायन।
दौरे गयन्द उबारिबे को प्रभु बाहन छाड़ि उपाहने पायन।।’
स्पष्टीकरण
आलंबन (विभाव) | गयन्द |
उद्दीपन (विभाव) | गज की दशा |
अनुभाव | गज के उद्धार के लिए दौड़ पड़ना |
व्यभिचारी | धृति, आवेग, हर्ष, आदि। |
इन सभी से पुष्ट होकर उत्साह स्थायी दयावीर रस में परिणत हो गया है।
4.धर्मवीर रस
आलंबन (विभाव) | वेद शास्त्र के वचनों एवं सिद्धान्तों पर श्रद्धा तथा विश्वास |
उद्दीपन (विभाव) | उनके उपदेशों और शिक्षाओं का श्रवण-मनन, आदि। |
अनुभाव | तदनुकूल आचरण |
संचारी भाव | धृति, क्षमा, आदि। |
धर्मधारण एवं धर्माचरण के उत्साह की पुष्टि धर्मवीर रस में होती है।
धर्मवीर रस का उदाहरण
धर्मवीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार है:-
‘रहते हुए तुम-सा सहायक प्रण हुआ पूरा नहीं।
इससे मुझे है जान पड़ता भाग्यबल ही सब कहीं।।
जलकर अनल में दूसरा प्रण पालता हूँ मैं अभी।
अच्युत युधिष्ठिर आदि का अब भार है तुम पर सभी।।’
स्पष्टीकरण
आलंबन (विभाव) | शास्त्रोक्त भाग्यफल आदि पर विश्वास |
उद्दीपन (विभाव) | प्रण का पूर्ण न होना |
अनुभाव | अर्जुन का प्रण-पालनार्थ उद्यत होना |
संचारी भाव | धृति, मति, आदि। |
इन सभी से पुष्ट होकर धर्माचरण उत्साह धर्मवीर रस में परिपक्व हो गया है।
युद्धवीर रस, श्रृंगार रस के साथ
कवियों को युद्धवीर रस का श्रृंगार रस के साथ विशेष प्रिय रहा है। केशवदास के उद्धृत कवित्त में इसी का चित्र है:-
गति गजराज साजि देह की दिपति बाजि,
हाव रथ भाव पति राजि चल चाल सों।
लाज साज कुलकानि शोच पोच भव मानि,
भौंहें धनु तानि बान लोचन बिसाल सों।
केसोदास मन्द हास असि कुच भट मिरें,
भेंट भये प्रतिभट भाले नख जाल सों।
प्रेम को कवच कसि साहस सहायक है,
जीति रति रण आजु मदनगुपाल सो।’ – रसिकप्रिया
‘साहित्यदर्पण’ में वीर रस को श्रृंगार रस का विरोधी माना गया है। लेकिन, ‘रसगंगाधर’ में इसे श्रृंगार रस का अविरोधी समझा गया है। विश्वनाथ में भयानक रस और शान्त रस के साथ वीर रस का विरोध ठहराया है।
जबकि, पण्डितराज ने सिर्फ भयानक रस के साथ वीर रस का विरोध ठहराया है। वह वीर रस के साथ रौद्र रस का अविरोध मानते है। वस्तुत: वीर रस एवं शान्त रस में विरोध तथा वीर रस एवं रौद्र रस में मैत्री भाव मानना युक्तिसंगत दिखाई देता है।
अन्य विद्वानों के अनुसार वीर रस के भेद
यह उत्साह असल में विभिन्न वस्तुओं के प्रति, जीवन के विभिन्न गुणों अथवा व्यवसाय के प्रति विकसित हो सकता है और इस दृष्टि से वीर रस के कईं भेद हो सकते है।
भरतमुनि के अनुसार वीर रस के भेद
आद्याचार्य भरतमुनि ने वीर रस के कुल 3 भेद बताए है, जो कि निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दानवीर |
धर्मवीर |
भोजराज के अनुसार वीर रस के भेद
भोजराज ने ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में धर्मवीर को न मानकर उसके स्थान पर ‘दयावीर’ का निरूपण किया है, जो कि निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दानवीर |
दयावीर |
भानुदत्त के अनुसार वीर रस के प्रकार
भानुदत्त ने भी ‘धर्मवीर’ को स्वीकार न कर वीर रस के कुल 3 प्रकार बताए है, जो कि निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दानवीर |
दयावीर |
विश्वनाथ के अनुसार वीर रस के भेद
विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ में धर्मवीर को भी सम्मिलित कर वीर रस कुल 4 भेद बताए है, जो कि निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दानवीर |
दयावीर |
धर्मवीर |
‘स च दानधर्मयुद्धैर्दयया च समन्वितश्रतुर्धा स्यात्।’
पण्डितराज के अनुसार वीर रस के भेद
पण्डितराज ने ‘रसगंगाधर’ में वीर रस के इन 4 भेदों युद्धवीर, दानवीर, दयावीर व धर्मवीर को स्वीकार किया है, लेकिन उन्होंने कुछ अन्य भेदों की सम्भाव्यता का भी निर्देश किया गया है, जो कि निम्न प्रकार है:-
पाण्डित्यवीर |
सत्यवीर |
बलवीर |
क्षमावीर |
हिंदी के आचार्य देव के अनुसार वीर रस के भेद
हिन्दी के आचार्यों में देव ने वीर रस के सिर्फ 3 भेद ही स्वीकार किये है, जो कि निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दयावीर |
दानवीर |
अन्य आचार्यों ने प्राय: ‘साहित्यदर्पण’ के 4 प्रकारों को स्वीकृत किया है।
हरिऔध के अनुसार वीर रस के भेद
‘हरिऔध’ ने ‘रसकलश’ में वीर रस के कुल 5 बताए है, जिनमें ‘कर्मवीर’ नामक पाँचवाँ भेद भी उपपादित किया है। हरिऔध के अनुसार वीर रस के सभी भेद निम्न प्रकार है:-
युद्धवीर |
दानवीर |
दयावीर |
धर्मवीर |
कर्मवीर |
इस प्रकार यदि ‘उत्साह’ अथवा ‘वीरत्व’ के व्यापकत्व का विचार करें, तो वीर रस श्रृंगार रस के समकक्ष ठहरता है। आस्वादनीयता को ध्यान में रखते हुए ‘साहित्यदर्पण’ के कुल 4 प्रकार ही सर्वमान्य है।
यद्यपि, कतिपय विद्वान ‘युद्धवीर रस’ में ही सच्चे उत्साह व शौर्य का प्रस्फुटन सम्भव मानते है तथा धर्मवीर, दानवीर, आदि को शान्त व भक्ति प्रभृति रसों में अन्तर्भूत करते है।
वीर रस के उपादानों को समन्वित रूप से विश्वनाथ ने निर्दिष्ट किया है:- ‘विजित किए जाने योग्य आदि व्यक्ति, आलम्बन विभाव तथा उनकी चेष्टाएँ, आदि उद्दीपन विभाव है। युद्ध, आदि के सहायक, आदि का अन्वेषणादि इसके अनुभाव है। धृति, मति, गर्व, स्मृति, तर्क, रोमांच, आदि इसके संचारी भाव है।’
हिन्दी के आचार्य कुलपति ने ‘रसरहस्य’ नामक ग्रन्थ में वीर रस का जो वर्णन किया है, वह अत्यंत सरल व सुबोध है:-
‘मिलि विभाव अनुभाव अरु संचारिन की भीर।
व्यंग्य कियो उत्साह जहँ सोई रस है वीर।।’
‘युद्ध दान अरु दया पुनि, धर्म सु चारि प्रकार।
अरि बल समर विभाव यह, युद्धवीर बिस्तार।।’
‘वचन अरुणता बदन की, अरु फूलै सब अंग।
यह अनुभव बखानिये, सब बीरन के संग।।’
वीर रस के काव्य
हिन्दी साहित्य में रस ग्रन्थों का वीरकाव्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व माना है। इनमें से कुछ मुक्तकीय वीरगति के रूप में उपलब्ध है, तो कुछ मुक्तकीय प्रबन्धकाव्य के रूप में उपलब्ध है।
‘वीसलदेवरासो’ तथा ‘आल्हा खण्ड’ प्रथम कोटि की और ‘खुमानरासो’ तथा ‘पृथ्वीराजरासो’ द्वितीय श्रेणी की रचनाएँ है। इनमें ‘आल्हा खण्ड’ तो प्रारम्भ से ही लोगों का प्रिय काव्य रहा है तथा उत्तर-भारत की ग्रामीण जनता में इसके श्रवण के लिए काफी अनुराग है।
भक्तिकाल एवं रीतिकाल में परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण वीर रस की धारा सूखती दिखाई देती है।
फिर भी, केशव का ‘वीरसिंहदेव चरित’, मान का ‘राजविलास’, भूषण का ‘शिवराजभूषण’, लाल का ‘छत्रप्रकाश’, आदि ग्रन्थों में वीर रस का प्रवाह प्रवहमान है।
यूं तो ‘रामचरितमानस’ शान्त रस प्रधान रचना है, फिर भी राम-रावण युद्ध के प्रसंग में प्रचुर वीर रस की निष्पत्ति हुई है।
भारत देश में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के अनन्तर जो राष्ट्रीयता की लहर जनसमुदायों में दौड़ गई, उसके फलस्वरूप एक बार पुन: हिन्दी काव्य में वीर रस की धारा नवजीवन सहित बही है।
मैथिलीशरण गुप्त, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, माखनलाल चतुर्वेदी, ‘निराला’, ‘नवीन’, ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’, अनूप शर्मा, ‘दिनकर’, श्यामनारायण पाण्डेय, आदि ने अपनी रचनाओं में वीर रस का अजस्र प्रवाह प्रवाहित किया है। जिसमें नव-जाग्रत राष्ट्र की सकल आकांक्षाएं मूर्तिमती एवं मुखर हो उठी है।
वीर रस के उदाहरण
वीर रस के सभी उदाहरण निम्न प्रकार है:-
उदाहरण:- 1
मैं सत्य कहता हूँ सखे, सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
है और कि तो बात क्या, गर्व मैं करता नहीं,
मामा तथा निज तात से भी युद्ध में डरता नहीं।।
स्पष्टीकरण
आलंबन (विभाव) | कौरव |
आश्रय | अभिमन्यु |
उद्दीपन (विभाव) | चक्रव्यूह की रचना |
अनुभाव | अभिमन्यु के वाक्य |
संचारी भाव | गर्व, औत्सुक्य, हर्ष, आदि। |
अभिमन्यु का यह कथन अपने साथी के प्रति है। इन सभी के संयोग से वीर रस की निष्पत्ति हुई है।
उदाहरण:- 2
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है।
भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी नाद मद गैबरन के रलत है।।
स्पष्टीकरण
स्थायी भाव | शिवाजी के ह्रदय का उत्साह |
आलंबन (विभाव) | युद्ध को जीतने की इच्छा |
उद्दीपन (विभाव) | नगाड़ों का बजना |
अनुभाव | हाथियों के मद का बहना |
संचारी भाव | उग्रता |
उपरोक्त पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। इनमें सबसे पुष्ट उत्साह नामक स्थाई भाव वीर रस की दशा को प्राप्त हुआ है।
वीर रस से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न
-
वीर रस का स्थायी भाव क्या है?
(अ). रति
(ब). उत्साह
(स). क्रोध
(द). अद्भुत
उत्तर :- उत्साह -
‘रामधारी सिंह दिनकर’ कौनसे रस के मुख्य कवि है?
(अ). रौद्र रस
(ब). करुण रस
(स). श्रृंगार रस
(द). वीर रस
उत्तर:- वीर रस -
निम्नलिखित में ‘वीर रस’ का भेद नहीं है?
(अ). युध्दवीर
(ब). धर्मवीर
(स). दयावीर
(द). क्रोधवीर
उत्तर:- क्रोधवीर -
‘वीर रस’ में सबसे अधिक कौनसा रस होता है?
(अ). उत्साह
(ब). क्रोध
(स). विस्मय
(द). हास
उत्तर:- उत्साह -
‘मोह’ वीर रस का कौनसा अवयव है?
(अ). अनुभाव
(ब). विभाव
(स). संचारी भाव
(द). उद्दीपन विभाव
उत्तर:- संचारी भाव -
‘शत्रु का पराक्रम’ में कौनसा अवयव है?
(अ). उद्दीपन विभाव
(ब). अनुभाव
(स). संचारी भाव
(द). आलंबन
उत्तर:- उद्दीपन विभाव
अंतिम शब्द
अंत में आशा करता हूँ कि यह लेख आपको पसंद आया होगा और आपको हमारे द्वारा इस लेख में प्रदान की गई अमूल्य जानकारी फायदेमंद साबित हुई होगी।
अगर इस लेख के द्वारा आपको किसी भी प्रकार की जानकारी पसंद आई हो तो, इस लेख को अपने मित्रों व परिजनों के साथ फेसबुक पर साझा अवश्य करें और हमारे वेबसाइट को सबस्क्राइब कर ले।

नमस्कार, मेरा नाम सूरज सिंह रावत है। मैं जयपुर, राजस्थान में रहता हूँ। मैंने बी.ए. में स्न्नातक की डिग्री प्राप्त की है। इसके अलावा मैं एक सर्वर विशेषज्ञ हूँ। मुझे लिखने का बहुत शौक है। इसलिए, मैंने सोचदुनिया पर लिखना शुरू किया। आशा करता हूँ कि आपको भी मेरे लेख जरुर पसंद आएंगे।